ग़ज़ल
शहर में तेरे तमाशे कम नहीं
ज़ख्म हरसू हैं मगर मरहम नहीं
हिचकियाँ ही हिचकियाँ क्यूँ कर भला
जब कोई भी गुफ्तगू बाहम नहीं
क्या हुआ है मौसमों को आजकल
हैं चमन में गुल मगर शबनम नहीं
सुन रहे हैं सब उसी को गौर से
बात में जिसकी ज़रा भी दम नहीं
प्यार में हर फैसला तुमने किया
मैं तो बस खामोश था, बरहम नहीं
ज़िन्दगी मुझसे मिली कुछ इस कदर
बज़्म है पर जल्व-ए-पैहम नहीं
हर नफ़स इक इम्तेहां सा है मगर
वो मुसाफ़िर खुश है,वो पुरगम नहीं
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
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