गुरुवार, अप्रैल 29, 2010

ग़ज़ल
शहर में तेरे तमाशे कम नहीं
ज़ख्म हरसू हैं मगर मरहम नहीं

हिचकियाँ ही हिचकियाँ क्यूँ कर भला
जब कोई भी गुफ्तगू बाहम नहीं

क्या हुआ है मौसमों को आजकल
हैं चमन में गुल मगर शबनम नहीं

सुन रहे हैं सब उसी को गौर से
बात में जिसकी ज़रा भी दम नहीं

प्यार में हर फैसला तुमने किया
मैं तो बस खामोश था, बरहम नहीं

ज़िन्दगी मुझसे मिली कुछ इस कदर
बज़्म है पर जल्व-ए-पैहम नहीं

हर नफ़स इक इम्तेहां सा है मगर
वो मुसाफ़िर खुश है,वो पुरगम नहीं

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

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