ग़ज़ल
आजकल जालिम ज़माने का अजब दस्तूर है
बेवफा के पास सबकुछ , बावफा मजबूर है।
ऐ निग़ाहे-शोख तू धोखा न खा जाना कहीं
इन दिनों अल्मास जैसा पत्थरों में नूर है।
सुन ऐ फ़ितनागर ज़रा ,इक बार ही ये सोच ले
कोख का दर्जा है क्या , क्या चीज़ ये सिन्दूर है।
इन महलवालों को आखिर,ये खबर होती भी क्यूँ
अब तकय्युल बस्तियों का भी बड़ा पुरनूर है।
और तो मसरूफ हैं ऊँची उड़ानों ने में सभी
वो परिंदा शाख पर है जो थकन से चूर है।
मैं "मुसाफ़िर" हूँ मेरी अपनी कोई ख्वाहिश नहीं
जो अता कर दे खुदा मुझको वही मंज़ूर है।
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें