रविवार, मई 01, 2011

ग़ज़ल !!!!!

शहर में इनदिनों आख़िर बहोत माहौल बदला है
कोई घर में ही सिमटा है, कोई दुनिया में फैला है

सियासत दां है वो आख़िर उसे क्या फ़र्क पड़ता है
भले अन्दर से हो काला, मगर बाहर से उजला है

मैं ये ही सोचता था, कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
मगर देखा जिसे वो ही यहां नहले पे देहला है

कहीं ग़म की घटा काली, कहीं खुशियों की रंगीनी
ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रुपहला है

न मंज़िल का पता उसको, न तो हमवार हैं रस्ते
भारी दुनिया में वो शाइर "मुसाफ़िर" भी अकेला है

मुसाफ़िर



7 टिप्‍पणियां:

  1. मैं ये ही सोचता था, कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
    मगर देखा जिसे वो ही यहां नहले पे देहला है bahut sunder...

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  2. कहीं ग़म की घटा काली, कहीं खुशियों की रंगीनी
    ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रुपहला है

    सुंदर ।

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  3. सियासत दां है वो आख़िर उसे क्या फ़र्क पड़ता है
    भले अन्दर से हो काला, मगर बाहर से उजला है

    मैं ये ही सोचता था, कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
    मगर देखा जिसे वो ही यहां नहले पे देहला है

    कलियुग का सत्य इन पक्तियों में खूब अभिव्यक्ति हो रहा है !
    अच्छी ग़ज़ल !

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  4. आदरणीय श्रीविलासजी,

    बहुत खूब। बहुत बधाई।

    मैं ये ही सोचता था, कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
    मगर देखा जिसे वो ही यहां नहले पे देहला है।

    ॥ सः त्वां मां (च) अन्तरा स्वपिति ॥

    वह तुम्हारे और मेरे बीच में बैठा है। (ईश्वर?)

    मार्कण्ड दवे।
    http://mktvfilms.blogspot.com

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  5. सियासत दां है वो आख़िर उसे क्या फ़र्क पड़ता है
    भले अन्दर से हो काला, मगर बाहर से उजला है
    ...
    बहुत ख़ूबसूरत गज़ल..हरेक शेर बहुत सटीक और उम्दा..आभार

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  6. कहीं ग़म की घटा काली, कहीं खुशियों की रंगीनी
    ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रुपहला है
    ज़िंदगी का फलसफा ... बहुत अच्छी गज़ल ।

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