शनिवार, फ़रवरी 16, 2013

Ghazal


यूँ न आते ज़मी पे तारे भी 
दिल में कुछ कुछ तो है तुम्हारे भी 

जिनको कहते हैं मुहब्बत में खुतूत 
कुछ तुम्हारे हैं, कुछ हमारे भी 

दिल तो बस इतनी चाहता है वफ़ा 
कोई दिल से हमें पुकारे भी 

बेवजह बात पर किसी लड़ना 
हो तो सकते हैं ये इशारे भी 

आपके साथ साथ रह रह कर 
कितने मगरूर हैं नज़ारे भी 

मेरे नग्मे तुम्हारे नाम हुए 
छीन गए मुझसे ये सहारे भी 

राहबर हूँ, नहीं हूँ मैं रहज़न 
सारे  जेवर ये क्यूँ उतारे भी 

तिशना -लब हो ये जनता हूँ मगर 
हैं "मुसाफिर" के अश्क खारे भी 

बुधवार, नवंबर 21, 2012

ग़ज़ल


भीगे हुए लम्हात का मंज़र नहीं मिलता 
जिस घर की आरजू है वोही घर नहीं मिलता 

दुनिया के सराफे में हरेक शै तो है लेकिन 
अश्कों से तराशा हुआ पत्थर नहीं मिलता 

ये कैसी अदावत है मोहब्बत में बता दे 
अपनों की तरह क्यूँ मुझे छूकर नहीं मिलता 

जिस चीज़ को चाहा मुझे हासिल तो गई 
इक तेरा पता ही मुझे क्यूँकर नहीं मिलता 

मुझको तेरे जहान में आना तो है मगर 
बस रूह के मिज़ाज का पैकर नहीं मिलता 

जिसको सुकूने ज़िन्दगी कहते रहे हैं लोग 
कोई भी उस मक़ाम पे हंसकर नहीं मिलता 

रहज़न तो हरेक गाम पे मिलते रहे मुझे 
इतना मलाल है कोई रहबर नहीं मिलता 

वो है कोई "मुसाफिर" शाइर भी है मगर 
हैरत की बात है के वो खुलकर नहीं मिलता 

मुसाफिर  

Ghazal


Bheege hue lamhaat ka manzar nahin milta 
Jis ghar ki aarzoo hai wohi ghar nahin milta .


Dunia ke saraafe mein harek shay to hai lekin 
Ashkon se taraasha hua patthar nahin milta 

Ye kaisee Adaawat hai mohabbat mein bata de 
Apno ki tarah kyun mujhe chookar nahin milta 


Jis cheez ko chaha mujhe haasil to gai 
Ik tera pata hi mujhe kyunkar nahin milta 

Mujhko tere jahaan mein aana to hai magar 
Bas rooh ke mizaaj ka paikar nahin milta 

Jisko sukoone -zindagi kahte rahe hain log 
Koi bhi us maqaam pe hanskar nahin milta 


Rahzan to harek gaam pe milte rahe mujhe 
Itna malaal hai koi rahbar nahin milta 

Wo hai koi "Musafir" shaair bhi hai magar 
hairat ki baat hai kabhi khulkar nahin milta 

Musafir 

गुरुवार, नवंबर 15, 2012

Ghazal


घर में तमाम लोग हैं, तनहा मगर हूँ मैं 
दरियादिलों के दरमियां प्यासा मगर हूँ मैं 

होता है ज़िक्र आपका महफ़िल में जब कभी 
कुछ बोलता नहीं हूँ, रोता मगर हूँ मैं 

फौलाद दिल को कर लिया हालात देखकर 
सूरज की तरह शाम को ढलता मगर हूँ मैं 

अफसाना लिखके या कभी कहके कोई ग़ज़ल 
दिल की हरेक बात को कहता मगर हूँ मैं 

बाहर मेरा वजूद भले बादशाह सा हो 
भीतर किसी फ़क़ीर का चोला मगर हूँ मैं 

सैयाद पर ही काट के लगता है मुत्मईन 
उम्मीद की उड़ान तो भरता मगर हूँ मैं 

माना के नश्तरों से "मुसाफिर" निबाह है 
फूलों की तरह रोज़ ही खिलता मगर हूँ मैं 

मुसाफिर 

मंगलवार, अक्तूबर 30, 2012

ग़ज़ल


दूर मेरी ज़िन्दगी से सब अँधेरे हो गए 
कुछ पराये दर्द थे, जो आज मेरे हो गए 

दे गया उस पल खुदा, दुनिया हमें एहसास की 
जब ख़ुशी के साथ गम के सात फेरे हो गए 

भर गया वो पत्तियों से फिर हरा होने लगा 
उस शजर पे पंछियों के जब बसेरे हो गए 

घुट गया दम उस जगह रिश्तों का देखो तो ज़रा 
हम से बँट कर आदमी जो तेरे मेरे हो गए 

क्या कोई झोंका हवा का फिर दीवाना हो गया 
आसमां पर किसलिए बादल घनेरे हो गए 

डूबती शब है "मुसाफिर" से ही पूछेगी अभी 
हम भला क्यूँकर जुदा इतने सवेरे हो गए 

मुसाफिर 

मंगलवार, अक्तूबर 09, 2012

Ghazal


ज़हर है, या के दवा है, क्या है 
भर के पैमाना दिया है, क्या है 

तेज़ लपटों को देखने वालों 
सिर्फ़ धुआं सा उठा है, क्या है 

क़ैद हैं अब भी अनगिनत पंछी 
इक परिंदा ही उड़ा है, क्या है 

है ख़ुशी, वार सामने से किया 
तीर सीने में लगा है, क्या है 

घर में बर्तन जो हैं, तो खनकेंगे 
भीड़ क्यूं इतनी जमा है, क्या है 

मुसाफ़िर 

शनिवार, मई 05, 2012

हसरत ....


ग़म के हालात का बयां दे दो 
अपनी चुप को ज़रा ज़ुबां दे दो 

मैं बुज़ुर्गों से कह गया इक दिन 
मुझको दौलत नहीं, विरासत में 
हर तजुरबे की वसीयत करके 
बस अंगूठे का इक निशां दे दो 

अपनी ख्वाहिश मैं बताऊँ किसको 
हर तरफ हो सुकून, राहत हो 
तन पे कपडा हो, पेट में खाना 
मेरी आँखों को ये समां दे दो 

देखकर इस जहां की हालत को 
दिल से आंसूं निकल ही पड़ते हैं 
चंद तब्दीलियों की है हसरत 
इस ज़मीं को वो आसमां दे दो 

जिसके दिल में वतन-परस्ती हो 
जिसकी हसरत में अम्न हो बाक़ी 
हम ग़रीबों के इस मुक़ददर में 
ऐसा कोई तो हुक्मरां दे दो 

मुसाफ़िर