मंगलवार, अक्तूबर 30, 2012

ग़ज़ल


दूर मेरी ज़िन्दगी से सब अँधेरे हो गए 
कुछ पराये दर्द थे, जो आज मेरे हो गए 

दे गया उस पल खुदा, दुनिया हमें एहसास की 
जब ख़ुशी के साथ गम के सात फेरे हो गए 

भर गया वो पत्तियों से फिर हरा होने लगा 
उस शजर पे पंछियों के जब बसेरे हो गए 

घुट गया दम उस जगह रिश्तों का देखो तो ज़रा 
हम से बँट कर आदमी जो तेरे मेरे हो गए 

क्या कोई झोंका हवा का फिर दीवाना हो गया 
आसमां पर किसलिए बादल घनेरे हो गए 

डूबती शब है "मुसाफिर" से ही पूछेगी अभी 
हम भला क्यूँकर जुदा इतने सवेरे हो गए 

मुसाफिर 

मंगलवार, अक्तूबर 09, 2012

Ghazal


ज़हर है, या के दवा है, क्या है 
भर के पैमाना दिया है, क्या है 

तेज़ लपटों को देखने वालों 
सिर्फ़ धुआं सा उठा है, क्या है 

क़ैद हैं अब भी अनगिनत पंछी 
इक परिंदा ही उड़ा है, क्या है 

है ख़ुशी, वार सामने से किया 
तीर सीने में लगा है, क्या है 

घर में बर्तन जो हैं, तो खनकेंगे 
भीड़ क्यूं इतनी जमा है, क्या है 

मुसाफ़िर