आवारगी में यूँ तो क्या क्या नहीं किया
यारों मगर किसी से धोका नहीं किया.
थे चारसू हमारे गुनाहों के सिलसिले
दामन बचा के रखलिया मैला नहीं किया
कश्ती की जुस्तजू में बसर ज़िन्दगी तो की
लेकिन किसी ने पार वो दरिया नहीं किया
वादा तो आप कर गए निभाया नहीं मगर
मेरी नज़र में आपने अच्छा नहीं किया
शायद मेरा नसीब ही पतझड़ था, धूप थी
आख़िर किसी दरख़्त ने साया नहीं किया
ये क्या तुम्हारी आँख में आंसू भी आ गए
हमने शुरू तो दर्द का क़िस्सा नहीं किया
बाज़ार तो सजा था, गुनाहों का हर तरफ
हमने मगर ज़मीर का सौदा नहीं किया
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
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