अब दुआओं में असर होने को है
घर के सारे लोग हैं, अहले-ज़मीं
फ़िक्र मेरी घर के इक कोने को है
किसलिए इतना भरम,आखिर सनम
ज़िन्दगी में क्या भला खोने को है
हो रही है, इक सुबह उम्मीद की
आदमी बस आदमी होने को है
जिसमे वादे थे वफ़ा, जज़्बात थे
ख़त लहू से आज वो धोने को है
जब दिली जज़्बात ही बाहम नहीं
बोझ फिर रिश्तों का क्यूँ ढोने को है
शुक्रिया या-रब, तेरा फिर शुक्रिया
इक "मुसाफ़िर" पास में रोने को है
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
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घर के सारे लोग हैं, अहले-ज़मीं
जवाब देंहटाएंफ़िक्र मेरी घर के इक कोने को है
जब दिली जज़्बात ही बाहम नहीं
बोझ फिर रिश्तों का क्यूँ ढोने को है
वाक़ई ग़ज़ल पढ़ने का लुत्फ़ हासिल हुआ यहां आ कर
ख़ूबसूरत और ग़ज़लियत के तक़ाज़ों को पूरा करती हुई ग़ज़लों का ब्लॉग है ये
बहुत ख़ूब !
शुक्रिया इस्मत जी,
जवाब देंहटाएंआप जैसे कद्रदानो की मेहर है
विलास पंडित
हो रही है, इक सुबह उम्मीद की
जवाब देंहटाएंआदमी बस आदमी होने को है
जब दिली जज़्बात ही बाहम नहीं
बोझ फिर रिश्तों का क्यूँ ढोने को है
ग़ज़ल खूबसूरत है ....
अश`आर , खुद , किसी दिल के आँगन से हो कर
कागज़ पर उतर आये लगते हैं ....
सच्ची शाईरी को ... सलाम !
दानिश साहेब, ग़ज़ल आपको पसंद आई, ये मेरी खुशकिस्मती है, बस यूँ ही हौसला बढाते रहिये.
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