गुरुवार, नवंबर 03, 2011

ग़ज़ल


दिल की बस्ती इसक़दर जब जल रही है 
क्यूं हवा फिर तेज़ इतनी चल रही है 

हाँ वो पैदाइश अमीरों की थी मगर 
अब किसी मजदूर के घर पल रही है 

इश्क़ में इज़हार होना है फ़क़त 
बात इतनी सी है लेकिन टल रही है 

आप हैं मसरूफ अपनी ही ख़ुशी में 
शाम आँखों में हमारी ढल रही है 

आपको आना है तो आ जाइये 
बर्फ जैसी सांस मेरी गल रही है

मैंने उससे प्यार माँगा था कभी
हाथ अपने देखिये अब मल रही है 

कौन है आख़िर "मुसाफ़िर" कौन है 
आपकी महफ़िल में ये हलचल रही है

मुसाफ़िर 

सोमवार, सितंबर 26, 2011


जो भी नैतिक मूल्य थे, वो सब खिलौने हो गए  
आदमी क़द में बड़े पर दिल से बौने हो गए....

उफ़ ये मानवता भिखारन हो गई फुटपाथ की 
खस्ता- हालों के लिए रस्ते बिछौने हो गए 

क्या महक नोटों की, रोटी से भी अच्छी हो गई 
आदमी के कृत्य आख़िर क्यूं घिनौने हो गए 

है पराई औरतों को अब भी पाने की हवस
घर में सारी बेटियों के कबके गौने हो गए 

यूँ तो महँगी हो गई, हर शै इसी बाज़ार की 
भाव बस इंसान के ही औने-पौने हो गए 

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

शनिवार, सितंबर 03, 2011

ग़ज़ल ...

उलझनों को और मत उलझाइये 
ज़िन्दगी को प्यार से समझाइये 

दोस्तों की बेवफ़ाई का सबब 
आप अपने दिल को मत बतलाइये 

शोखियां, बदमाशियां, सरगोशियाँ 
उम्र है ये सब तो करते जाइये 

हम दीवाने हैं या पागल हैं ज़रा 
ये पहेली आप ही सुलझाइये 

क्यूं हुए बेरंग भी, बेनूर भी 
आप फूलों को ज़रा महकाइये 

दिल तो क्या घर भी तुम्हारे नाम हैं 
आइये बेख़ौफ़ होकर आइये 

विलास पंडित 
"मुसाफ़िर'

शुक्रवार, अगस्त 26, 2011

एक गीतनुमा ग़ज़ल आपके लिए ....


कह रहा हूँ अपने दिल की बात तुमसे 
चाहता हूँ बस मैं इक सौग़ात तुमसे

सोचता हूँ कब मिलेंगे ज़िन्दगी में  
वस्ल के अनमोल कुछ लम्हात तुमसे

क्या ये हक़ चाहत में मुझको है सनम 
मांग लूँ मैं बस तुम्हारा हाथ तुमसे 

क्यूं न हो बारिश हज़ारों रंग की 
जुड़ गए हैं अब सभी जज़्बात तुमसे 

तुम समझने की ज़रा कोशिश करो 
कह रहे हैं कुछ  मेरे हालात तुमसे 

शुक्रवार, अगस्त 05, 2011

आंसुओं से भीगी हुई एक ग़ज़ल .......





ग़म के मंज़र ग़म की राहें, अब नहीं 
ज़िन्दगी तेरी पनाहें , अब नहीं 

मेरे शेरों में नहीं अब लज्ज़तें 
आप मुझको क्यूं सराहें, अब नहीं 

दम मेरा घुटता है सीने में बहोत 
हाय वो आंसूं वो आहें, अब नहीं  

ख़ुद को ही अब क़त्ल करना है मुझे 
आपकी कातिल निगाहें, अब नहीं 

मौत की आगोश मिल जाए फ़क़त 
आपकी मखमल सी बाहें, अब नहीं 

ख़ुद ही करना है अब ख़ुद का फ़ैसला
दोस्तों की कुछ सलाहें, अब नहीं

मुसाफ़िर 


मंगलवार, जुलाई 05, 2011

फूल ने तितली से कुछ.....


खिल गया है, राज़े-दिल खोला तो है 
फ़ूल ने तितली से कुछ बोला तो है 

तुम हवा बनकर उसे सुलगा गए
हाँ मेरे सीने में इक शोला तो है 

काश अब ये सिलसिला आगे बढे 
उसने हमको इक नज़र तोला तो है 

यूँ अचानक तल्खियाँ रिश्तों में क्यूं 
अब किसी ने फिर ज़हर घोला तो है

लोग तो मेहदूद हैं, बस ख़ुद तलक 
कुछ वो दुनिया के लिए बोला तो है 

सब समझते हैं खिलौना बस उसे 
वो  "मुसाफ़िर" देखिये भोला तो है 

मुसाफिर 


शनिवार, जून 11, 2011

ग़ज़ल ....


अपनी धुन में गा लेता हूँ
दिल को यूँ बहला लेता हूँ 

कभी तो क़िस्मत साथ में होगी 
ख़ुद को मैं समझा लेता हूँ 

दोस्त मिले गर कोई पुराना 
मिलकर प्यास बुझा लेता हूँ 

बीते दौर की तस्वीरों को 
अपना हाल सुना लेता हूँ 

दिल भी है इक बच्चे जैसा
बातों में उलझा लेता हूँ 

फूलों को आख़िर मत छूना 
कांटो से वादा लेता हूँ 

चार ही कांधे, चार ही दोस्त 
बाक़ी बोझ उठा लेता हूँ 

मुसाफ़िर 

गुरुवार, मई 05, 2011

हल्की-फुल्की ग़ज़ल.......




जिसने साथ निभाया है
वो मेरा हमसाया है ....

ग़ैर नहीं भाई है मेरा 
हिस्सा लेने आया है 

टूटके फिरसे खिलने का गुर 
फूलों  ने सिखलाया है 

जाने किसने साथ निभाया 
जब जब दिल घबराया है 

मेरी जानिब गर कुछ है तो 
यादों का सरमाया है

इन्सां इन्सां -पत्थर पत्थर 
शहरों शहरों पाया है

अपनी सोच को ऊँचा रखना 
ख़्वाबों ने बतलाया  है

मुसाफ़िर.......

रविवार, मई 01, 2011

ग़ज़ल !!!!!

शहर में इनदिनों आख़िर बहोत माहौल बदला है
कोई घर में ही सिमटा है, कोई दुनिया में फैला है

सियासत दां है वो आख़िर उसे क्या फ़र्क पड़ता है
भले अन्दर से हो काला, मगर बाहर से उजला है

मैं ये ही सोचता था, कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
मगर देखा जिसे वो ही यहां नहले पे देहला है

कहीं ग़म की घटा काली, कहीं खुशियों की रंगीनी
ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रुपहला है

न मंज़िल का पता उसको, न तो हमवार हैं रस्ते
भारी दुनिया में वो शाइर "मुसाफ़िर" भी अकेला है

मुसाफ़िर



शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

ग़ज़ल

काम है कुछ नेक आख़िर कर भी जा
फ़ूल के ज़ख्मों को शबनम भर भी जा

क्यूं मुझे मुजरिम ज़माना कह गया
ऐ मेरे इलज़ाम उसके सर भी जा

काश हाथों में तेरे जादू हो कोई
दिल मेरा ग़मगीन है छूकर भी जा

आ गया है तो फ़क़त इतना ही कर
तू मेरा पैमाना-ए -ग़म  भर भी जा

हाँ !  सियाह रातें मुक़द्दर हैं मेरा
साथ उनके ऐ हसीं मंज़र भी जा

क़ैद हूँ मुद्दत से मैं  सीने के भीतर
ज़िन्दगी मुझको कहीं लेकर भी जा

कम ही कुछ हो जायेगी तेरी थकन
ऐ "मुसाफ़िर" अब ज़रा तू घर भी जा











 


मुसाफ़िर














शुक्रवार, मार्च 25, 2011

ग़ज़ल

आ भी जा, मुझको ज़रा सा शाद कर दे 
दिल की वीरान महफ़िलें आबाद कर दे  

तुझको पाने का जुनूं है, कम न होगा 
तू मुझे बदनाम क्या, बरबाद कर दे 

इक मेरी तुझसे गुज़ारिश है ख़ुदा
फ़ूल को इस दौर में फ़ौलाद कर दे

जो भी उड़ने का हुनर भूले नहीं 
ऐसे पंछी क़ैद  से आज़ाद कर दे

हौसला मेरा पहाड़ों का सा है 
दुश्मनों की चाहे जो तादाद कर दे

इश्क़ है तो वस्ल के लम्हे भी हों 
इक  ज़रा अल्लाह से फ़रियाद कर दे 

वो "मुसाफिर" के सिवा अब कौन है 
जो वफ़ा को, प्यार को रूदाद कर दे  














मुसाफ़िर

बुधवार, मार्च 23, 2011

ग़ज़ल

ज़िन्दगी इक राह दे जंगल न दे 
धूप दे कुछ गुनगुनी बादल न दे

या तो मेरा आज ही कर फ़ैसला
या मुझे इस ज़िन्दगी का कल न दे

जिस्म पर चाहे तू जितने घाव कर
रूह को मेरी चुभन पल-पल न दे

चुभ चुके हैं तीर लफ़्ज़ों के बहोत 
अब रज़ाई नर्म दे कम्बल न दे 

फंस के जिसमें ज़िंदगी बंट जाएगी  
खामखां रिश्तो का वो दल-दल न दे

या तो रोने से उसे तू रोक ले 
 या हसीं आँखों को अब काजल न दे 











मुसाफ़िर



गुरुवार, मार्च 10, 2011

एक बार मुझे मिल जाती तुम............तीसरा पृष्ठ

एक बार मुझे मिल जाती तुम ....................
मेरी ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता .......

हम साथ-साथ पढ़ने जाते ......
कभी दोस्ती करने तो कभी लड़ने के बहाने जाते 
दिन में झगड़ा भी अगर हो जाता 
शाम को पढ़ने के बहाने छत पर आकर ......
एक दूजे को मना लेते हम
पर क्या ख़बर थी ......
कि एक  दिन अचानक 
तुम शहर छोड़ जाओगी 
सारे रिश्तों को 
एक पल में तोड़ जाओगी 
हरेक ख़्वाब  न टूटता अपना 
काश ये ....रद्दो-बदल हो जाता ..........

एक बार मुझे मिल जाती तुम .........
मेरी ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता 


विलास पंडित "मुसाफिर"

मंगलवार, मार्च 08, 2011

एक बार मुझे मिल जाती तुम.......दूसरी किश्त

एक बार मुझे मिल जाती तुम.........
मेरी ज़िन्दगी का हर ख्वाब मुक़म्मल हो जाता ...

फिर न कोई गीत अधूरा होता 
न होता अल्फ़ाज़ का सरमाया ख़त्म 
रोज़ खिलते नए-नए गुंचे
हर वक़्त फ़िज़ाओं में गूंजते नग़में.......
एक छोटा सा आशियाँ होता.......
जिसकी हर खिड़की 
बहारों-पहाड़ों और आबशारों के मंज़र दिखाती..........
हमको हर लम्हा लुभाती रहती....
तुम मेरा साथ देती अगर ........?
तो यकीनन हमारा मिलन
मान लेता आज न होता ....लेकिन 
ये मिलन कल हो जाता ............

एक बार मुझे मिल जाती तुम.......
ज़िन्दगी का हर ख्वाब मुक़म्मल हो जाता....

विलास पंडित "मुसाफिर"

एक बार मुझे मिल जाती तुम..........13 पृष्ठीय कविता "प्रथम पृष्ठ"


एक बार मुझे मिल जाती तुम.....
मेरी ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता .....

मैं बसाता सपनों की दुनिया 
जिस दुनिया में होती तो,
सिर्फ़ मोहब्बत होती.....
न होती झूटी रस्में 
न थोपी हुई रिवायत होती......
हर तरफ महकती प्यार की खुश्बू
उन खुशबूओं में डूबकर हम ....
दो जिस्म इक जान हो जाते 
जी भर के प्यार करते ...और 
बाहों में सिमट कर सो जाते....
ज़िन्दगी का हरेक मस'अला
ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाता 

एक बार मुझे मिल जाती तुम
ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता................
विलास  पंडित "मुसाफिर"


सोमवार, मार्च 07, 2011

हे ईश्वर...........

मुझे बख्श दी तूने ज़िन्दगी, तू बड़ा रहीमो-करीम है
मेरी राह में  तेरी रोशनी, तू बड़ा रहीमो-करीम है.

ये तेरे करम का कमाल है, जो फिजां में ऐसा जमाल है
है शबाब पर ये कली-कली, तू बड़ा रहीमो-करीम है

मेरे लब पे तेरा ही नाम हो, तेरे नाम से मुझे काम हो 
ये क़ुबूल कर मेरी बंदगी, तू बड़ा रहीमो-करीम है 

जिसे चाहे रहने को घरभी दे, जिसे चाहे ऊँचा नगर भी दे 
मैं तो पाके ख़ुश हूँ ये दश्त ही, तू बड़ा रहीमो-करीम है 

तेरी गाह में ही पड़ा रहूँ, सदा नेकियों से जुड़ा रहूँ
तेरे नाम हो मेरी शायरी, तू बड़ा रहीमो-करीम है 

मेरी ज़ीस्त में यही बात हो, मेरे सर पे तेरा ही हाथ हो 
मेरी आरज़ू ये है आखरी, तू बड़ा रहीमो करीम है 


विलास पंडित "मुसाफिर"

गुरुवार, मार्च 03, 2011

ग़ज़ल

जिस तरफ जाता हूँ, उस जा चोट ही खाता हूँ मैं
इन दिनों  ये हाल है कि खुद से घबराता हूँ मैं

कर दिया बेज़ार मुझको इस फ़क़ीरी ने बहोत 
ख़ुद ही अपना दिन-ओ -अपनी रात हो जाता  हूँ मैं 

किसको फ़ुर्सत है जो आकर  दास्ताँ मेरी सुने 
नींद में बिस्तर को अपने राज़ बतलाता हूँ मैं

आजकल दिल की नहीं दौलत की सुनते हैं सभी 
बनके दीवाना भला  क्यूँ उस गली जाता हूँ मैं 

मेरी ग़ज़लें, मेरे नगमें याद आयें जब तुम्हे 
ये समझ लेना कि अपने ज़ख्म सहलाता हूँ मैं 

क्या दिया है ज़िन्दगी ने कुछ नहीं ग़म के सिवा 
मौत तेरी बज़्म में, अब रुक ज़रा आता हूँ मैं 

हूँ "मुसाफ़िर" ज़िन्दगी ने सख्त कर डाला मुझे 
बस ग़ज़ल की बर्फ  से ही ख़ुद को पिघलाता हूँ मैं 



विलास पंडित "मुसाफिर "




बुधवार, मार्च 02, 2011


क्या है मेरे नसीब में सचमुच ख़बर नहीं 
जब है तेरा वजूद तो मुझको भी डर नहीं 

तूफां के डर से कांपता होगा ये समंदर 
दरिया पे ऐसे खौफ़ का कोई असर नहीं 

अपना बना के आपसे करता रहा फरेब 
क्यूँ कर हुज़ूर आपकी उस पर नज़र नहीं 

खाना-बदोश हूँ, मेरा अंदाज़ है अलग 
रहता हूँ जिस जगह वहां दीवारों-दर नहीं 

खाता है खौफ़ आस्मां जिसकी उड़ान से 
देखो वो इक परिंदा अब शाख पर नहीं 

बेवजह उसकी आप भी क्यूं जुस्तजू में हैं 
वो तो  है इक " मुसाफ़िर"वो हमसफ़र नहीं 

विलास पंडित  " मुसाफ़िर'

मंगलवार, फ़रवरी 15, 2011

ग़ज़ल

घर मेरे खुशियों को लाया कौन है
खुशबूएं  महकी हैं, आया कौन  है.

सादा पानी सारा अमरित हो गया 
आबशारों में नहाया  कौन  है.

सब्र लूटा, चैन छीना, नींद  भी
ये बता दे, ऐ खुदाया कौन है 

अपने ही मन की फ़क़त करता है वो 
जिस्म के भीतर समाया कौन है 

दिलके सब कमरे भी कम पड़ने लगे 
गठरियाँ ग़म की ये लाया कौन है

कितने दिल महफिल में बिखरे देखिये 
आज की महफ़िल में गाया कौन है 

हाथ में सूरज के है ये फैसला 
जिस्म है अब कौन, साया कौन है 

ना तो कोई ख्वाब है, ना है उमीद
रात भर जिसने जगाया कौन है 

तै नहीं कर पाया अब तक दोस्तों 
कौन है अपना, पराया कौन है 

आज के इस दौर का तो वो नहीं 
जिसने हर वादा निभाया कौन है

सोचता हूँ वो "मुसाफ़िर" तो नहीं 
हर कदम पर आज़माया, कौन है 

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
[c] copyright by : Musafir 

सोमवार, फ़रवरी 07, 2011

प्यार...! ना...अब नहीं

इस ज़माने में.........यही रीत बना ली जाये 
दिल में अब इश्क़ की बुनियाद न डाली  जाये


शहर  में  रोज़ के हंगामे  हुआ करते हैं 
क्यूँ न बस्ती किसी  जंगल में बसाली  जाये 


कह रहे हैं यही तूफां  के बदलते तेवर 
अब कोई  नाव  समंदर में न डाली जाये 


कत्ल उसने ही किया है वोही कातिल है मगर 
क्यूँ ये बात ज़माने से छुपा ली  जाये 


मोहतरम  आप मुसाफ़िर हैं  "मुसाफ़िर" मैं  भी 
क्यूँ   न मिल- जुल  के कोई राह  निकली जाये 





विलास पंडित "मुसाफ़िर"  

मंगलवार, फ़रवरी 01, 2011

ग़ज़ल

जीवन है पल पल की उलझन, किस किस पल की बात करें 
इन लम्हों को भूल  के हम तुम गीत - ग़ज़ल की बात करें 

रोज़ ही पीना, रोज़ पिलाना . रोज़ ग़मों से टकराना 
इक दिन मय को भूल के आओ, गंगा जल की बात करें 

सौ बरसों के इस जीने से हासिल क्या हो पायेगा 
जिसने दिल को खुशियाँ दी हों, उस इक पल की बात करें 

क्या पाया है भीड़ में खोकर,  क्या पाया तन्हाई में 
आओ यारों इन रस्मों के फेर-बदल की बात करें 

आज वफ़ा की राह "मुसाफ़िर" धुंधली धुंधली लगती है 
कोहरा जिसने  बरसाया है, उस  बादल की बात करें 

विलास पंडित " मुसाफिर"
(C) Copyright By : Musafir 

शुक्रवार, जनवरी 21, 2011

आवारगी में यूँ तो क्या क्या नहीं किया 
यारों मगर किसी से धोका नहीं किया.

थे चारसू हमारे गुनाहों के सिलसिले 
दामन बचा के रखलिया मैला नहीं किया 

कश्ती की जुस्तजू में बसर ज़िन्दगी तो की 
लेकिन किसी ने पार वो दरिया नहीं किया 

वादा तो आप कर गए निभाया नहीं मगर
मेरी नज़र में आपने अच्छा नहीं किया 

शायद मेरा नसीब ही पतझड़ था, धूप  थी 
आख़िर किसी दरख़्त ने साया नहीं किया 

ये क्या तुम्हारी आँख में आंसू भी आ गए 
हमने शुरू तो दर्द का क़िस्सा नहीं किया 

बाज़ार तो सजा था, गुनाहों का हर तरफ 
हमने मगर ज़मीर का सौदा नहीं किया  

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(C) copyright by : Musafir 

शनिवार, जनवरी 15, 2011

एक दिन राह में इक हसीं मिल गई
जैसे ख्वाबों को मेरे ज़मीं  मिल गई..
उसकी हर इक अदा में थी जादूगरी 
वो तो थी.... खूबसूरत सी कोई परी
सादगी उसकी बातों की पहचान थी 
वो ज़माने की बातों से नादान थी....
आँखों-आँखों में उससे मुहब्बत हुई 
ऐ  खुदा देख तो क्या कयामत  हुई 
सारा माहौल फिर तो सुखनवर हुआ
राज़ बाहम जो था वो उजागर हुआ 
फूल खिलने लगे, हम भी मिलने लगे
और मुहब्बत  के दुश्मन भी जलने लगे 
हमने छोड़ी नहीं राहे उल्फ़त मगर
की, मुहब्बत में, चाहत में, हमने बसर 
ज़िन्दगी कट गई दरमियाँ प्यार में 
ज़िन्दगी कट गई दरमियाँ प्यार में 

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
[c] Copyright by : Musafir  

मंगलवार, जनवरी 11, 2011

ग़ज़ल

चमन का फूल, सितारों की दिलकशी तुम हो
मेरी हयात की ताबिंदा ज़िन्दगी तुम हो 

मैं एक रिन्दे-खराबात हूँ ज़माने में 
मेरे सुरूर की दुनिया हो मयकशी तुम हो 

तुम्हारे दम से है कैफ़-ओ-सुरूर का आलम 
ग़ज़ल का हुस्न हो, गीतों की मौसिकी तुम हो 

तुम्हारे हुस्न की दुनिया में जब हुई हलचल 
यकीं हुआ कि कोई अर्श की परी तुम हो 

अभी तो तुमको "मुसाफ़िर" ही बनके रहना है 
ये बात याद भी रक्खो कि अजनबी तुम हो

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c) Copyright By: Musafir
This ghazal was created by me in 1990. Sung by Renowned Singer "Anwar"

गुरुवार, जनवरी 06, 2011

ग़ज़ल

वो यकीनन ही किसी का हो गया
शौक जिसकी शाइरी का हो गया

अब कोई बदलाव आना चाहिए
आस्मां आख़िर ज़मीं का हो गया

ज़िन्दगी तुझसे शिकायत हो गई
जब तमाशा बेबसी का हो गया

फैसला उसकी अदालत में मेरे
हर नफस हरइक घड़ी का हो गया

प्यार के दुश्मन भी मुंह की खा गए
ख़ुद समंदर जब नदी का हो गया

इक झलक के लोग प्यासे थे मगर
वो तो दीवाना गली का हो गया

होश अपना फिर कहाँ कायम रहा
जब तसव्वुर इक परी का हो गया

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(C) copyright by Musafir




सोमवार, जनवरी 03, 2011

ग़ज़ल

जिस्म है खामोश, दिल सोने को है
अब दुआओं में असर होने को है

घर के सारे लोग हैं, अहले-ज़मीं
फ़िक्र मेरी घर के इक कोने को है

किसलिए इतना भरम,आखिर सनम
ज़िन्दगी में क्या भला खोने को है

हो रही है, इक सुबह उम्मीद की
आदमी बस आदमी होने को है

जिसमे वादे थे वफ़ा, जज़्बात थे
ख़त लहू से आज वो धोने को है

जब दिली जज़्बात ही बाहम नहीं
बोझ फिर रिश्तों का क्यूँ ढोने को है

शुक्रिया या-रब, तेरा फिर शुक्रिया
इक "मुसाफ़िर" पास में रोने को है

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(C) Copyright by :Musafir

गीत

प्यार है, और वस्ल का आलम भी है
इन दिनों बरसात का मौसम भी है

वक़्त ऐसा फिर कहाँ मिल पायेगा
रौशनी इस शाम की मद्धम भी है

आबशारों की सदा को क्या कहूँ
प्यार है तो प्यार की सरगम भी है

दोस्त हम पहले पहल थे आजकल
सिलसिला इक प्यार का बाहम भी है

मेरे नगमें और मेरी आवाज़ क्यूँ
साथ पायल की तेरे छम-छम भी है

एक दूजे के चलो हो जायें हम
प्यार का इक नाम तो संगम भी है

क्या कहा उसको बताओ ना मुझे
वो मुसाफ़िर खुश भी है पुर ग़म भी है


विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c)
copyright by : Musafir