गुरुवार, मार्च 10, 2011

एक बार मुझे मिल जाती तुम............तीसरा पृष्ठ

एक बार मुझे मिल जाती तुम ....................
मेरी ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता .......

हम साथ-साथ पढ़ने जाते ......
कभी दोस्ती करने तो कभी लड़ने के बहाने जाते 
दिन में झगड़ा भी अगर हो जाता 
शाम को पढ़ने के बहाने छत पर आकर ......
एक दूजे को मना लेते हम
पर क्या ख़बर थी ......
कि एक  दिन अचानक 
तुम शहर छोड़ जाओगी 
सारे रिश्तों को 
एक पल में तोड़ जाओगी 
हरेक ख़्वाब  न टूटता अपना 
काश ये ....रद्दो-बदल हो जाता ..........

एक बार मुझे मिल जाती तुम .........
मेरी ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता 


विलास पंडित "मुसाफिर"

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