शुक्रवार, मार्च 25, 2011

ग़ज़ल

आ भी जा, मुझको ज़रा सा शाद कर दे 
दिल की वीरान महफ़िलें आबाद कर दे  

तुझको पाने का जुनूं है, कम न होगा 
तू मुझे बदनाम क्या, बरबाद कर दे 

इक मेरी तुझसे गुज़ारिश है ख़ुदा
फ़ूल को इस दौर में फ़ौलाद कर दे

जो भी उड़ने का हुनर भूले नहीं 
ऐसे पंछी क़ैद  से आज़ाद कर दे

हौसला मेरा पहाड़ों का सा है 
दुश्मनों की चाहे जो तादाद कर दे

इश्क़ है तो वस्ल के लम्हे भी हों 
इक  ज़रा अल्लाह से फ़रियाद कर दे 

वो "मुसाफिर" के सिवा अब कौन है 
जो वफ़ा को, प्यार को रूदाद कर दे  














मुसाफ़िर

बुधवार, मार्च 23, 2011

ग़ज़ल

ज़िन्दगी इक राह दे जंगल न दे 
धूप दे कुछ गुनगुनी बादल न दे

या तो मेरा आज ही कर फ़ैसला
या मुझे इस ज़िन्दगी का कल न दे

जिस्म पर चाहे तू जितने घाव कर
रूह को मेरी चुभन पल-पल न दे

चुभ चुके हैं तीर लफ़्ज़ों के बहोत 
अब रज़ाई नर्म दे कम्बल न दे 

फंस के जिसमें ज़िंदगी बंट जाएगी  
खामखां रिश्तो का वो दल-दल न दे

या तो रोने से उसे तू रोक ले 
 या हसीं आँखों को अब काजल न दे 











मुसाफ़िर



गुरुवार, मार्च 10, 2011

एक बार मुझे मिल जाती तुम............तीसरा पृष्ठ

एक बार मुझे मिल जाती तुम ....................
मेरी ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता .......

हम साथ-साथ पढ़ने जाते ......
कभी दोस्ती करने तो कभी लड़ने के बहाने जाते 
दिन में झगड़ा भी अगर हो जाता 
शाम को पढ़ने के बहाने छत पर आकर ......
एक दूजे को मना लेते हम
पर क्या ख़बर थी ......
कि एक  दिन अचानक 
तुम शहर छोड़ जाओगी 
सारे रिश्तों को 
एक पल में तोड़ जाओगी 
हरेक ख़्वाब  न टूटता अपना 
काश ये ....रद्दो-बदल हो जाता ..........

एक बार मुझे मिल जाती तुम .........
मेरी ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता 


विलास पंडित "मुसाफिर"

मंगलवार, मार्च 08, 2011

एक बार मुझे मिल जाती तुम.......दूसरी किश्त

एक बार मुझे मिल जाती तुम.........
मेरी ज़िन्दगी का हर ख्वाब मुक़म्मल हो जाता ...

फिर न कोई गीत अधूरा होता 
न होता अल्फ़ाज़ का सरमाया ख़त्म 
रोज़ खिलते नए-नए गुंचे
हर वक़्त फ़िज़ाओं में गूंजते नग़में.......
एक छोटा सा आशियाँ होता.......
जिसकी हर खिड़की 
बहारों-पहाड़ों और आबशारों के मंज़र दिखाती..........
हमको हर लम्हा लुभाती रहती....
तुम मेरा साथ देती अगर ........?
तो यकीनन हमारा मिलन
मान लेता आज न होता ....लेकिन 
ये मिलन कल हो जाता ............

एक बार मुझे मिल जाती तुम.......
ज़िन्दगी का हर ख्वाब मुक़म्मल हो जाता....

विलास पंडित "मुसाफिर"

एक बार मुझे मिल जाती तुम..........13 पृष्ठीय कविता "प्रथम पृष्ठ"


एक बार मुझे मिल जाती तुम.....
मेरी ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता .....

मैं बसाता सपनों की दुनिया 
जिस दुनिया में होती तो,
सिर्फ़ मोहब्बत होती.....
न होती झूटी रस्में 
न थोपी हुई रिवायत होती......
हर तरफ महकती प्यार की खुश्बू
उन खुशबूओं में डूबकर हम ....
दो जिस्म इक जान हो जाते 
जी भर के प्यार करते ...और 
बाहों में सिमट कर सो जाते....
ज़िन्दगी का हरेक मस'अला
ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाता 

एक बार मुझे मिल जाती तुम
ज़िन्दगी का हर ख़्वाब मुक़म्मल हो जाता................
विलास  पंडित "मुसाफिर"


सोमवार, मार्च 07, 2011

हे ईश्वर...........

मुझे बख्श दी तूने ज़िन्दगी, तू बड़ा रहीमो-करीम है
मेरी राह में  तेरी रोशनी, तू बड़ा रहीमो-करीम है.

ये तेरे करम का कमाल है, जो फिजां में ऐसा जमाल है
है शबाब पर ये कली-कली, तू बड़ा रहीमो-करीम है

मेरे लब पे तेरा ही नाम हो, तेरे नाम से मुझे काम हो 
ये क़ुबूल कर मेरी बंदगी, तू बड़ा रहीमो-करीम है 

जिसे चाहे रहने को घरभी दे, जिसे चाहे ऊँचा नगर भी दे 
मैं तो पाके ख़ुश हूँ ये दश्त ही, तू बड़ा रहीमो-करीम है 

तेरी गाह में ही पड़ा रहूँ, सदा नेकियों से जुड़ा रहूँ
तेरे नाम हो मेरी शायरी, तू बड़ा रहीमो-करीम है 

मेरी ज़ीस्त में यही बात हो, मेरे सर पे तेरा ही हाथ हो 
मेरी आरज़ू ये है आखरी, तू बड़ा रहीमो करीम है 


विलास पंडित "मुसाफिर"

गुरुवार, मार्च 03, 2011

ग़ज़ल

जिस तरफ जाता हूँ, उस जा चोट ही खाता हूँ मैं
इन दिनों  ये हाल है कि खुद से घबराता हूँ मैं

कर दिया बेज़ार मुझको इस फ़क़ीरी ने बहोत 
ख़ुद ही अपना दिन-ओ -अपनी रात हो जाता  हूँ मैं 

किसको फ़ुर्सत है जो आकर  दास्ताँ मेरी सुने 
नींद में बिस्तर को अपने राज़ बतलाता हूँ मैं

आजकल दिल की नहीं दौलत की सुनते हैं सभी 
बनके दीवाना भला  क्यूँ उस गली जाता हूँ मैं 

मेरी ग़ज़लें, मेरे नगमें याद आयें जब तुम्हे 
ये समझ लेना कि अपने ज़ख्म सहलाता हूँ मैं 

क्या दिया है ज़िन्दगी ने कुछ नहीं ग़म के सिवा 
मौत तेरी बज़्म में, अब रुक ज़रा आता हूँ मैं 

हूँ "मुसाफ़िर" ज़िन्दगी ने सख्त कर डाला मुझे 
बस ग़ज़ल की बर्फ  से ही ख़ुद को पिघलाता हूँ मैं 



विलास पंडित "मुसाफिर "




बुधवार, मार्च 02, 2011


क्या है मेरे नसीब में सचमुच ख़बर नहीं 
जब है तेरा वजूद तो मुझको भी डर नहीं 

तूफां के डर से कांपता होगा ये समंदर 
दरिया पे ऐसे खौफ़ का कोई असर नहीं 

अपना बना के आपसे करता रहा फरेब 
क्यूँ कर हुज़ूर आपकी उस पर नज़र नहीं 

खाना-बदोश हूँ, मेरा अंदाज़ है अलग 
रहता हूँ जिस जगह वहां दीवारों-दर नहीं 

खाता है खौफ़ आस्मां जिसकी उड़ान से 
देखो वो इक परिंदा अब शाख पर नहीं 

बेवजह उसकी आप भी क्यूं जुस्तजू में हैं 
वो तो  है इक " मुसाफ़िर"वो हमसफ़र नहीं 

विलास पंडित  " मुसाफ़िर'