गुरुवार, अप्रैल 29, 2010

ग़ज़ल
शहर में तेरे तमाशे कम नहीं
ज़ख्म हरसू हैं मगर मरहम नहीं

हिचकियाँ ही हिचकियाँ क्यूँ कर भला
जब कोई भी गुफ्तगू बाहम नहीं

क्या हुआ है मौसमों को आजकल
हैं चमन में गुल मगर शबनम नहीं

सुन रहे हैं सब उसी को गौर से
बात में जिसकी ज़रा भी दम नहीं

प्यार में हर फैसला तुमने किया
मैं तो बस खामोश था, बरहम नहीं

ज़िन्दगी मुझसे मिली कुछ इस कदर
बज़्म है पर जल्व-ए-पैहम नहीं

हर नफ़स इक इम्तेहां सा है मगर
वो मुसाफ़िर खुश है,वो पुरगम नहीं

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

मंगलवार, अप्रैल 27, 2010

दो सूफियाना गीत

अल्ला -अल्ला, करते करते हम दीवाने हो गए
कल तलक कुछ भी थे वो सब सयाने हो गए

हम तो तेरे नाम की माला जपने में मशगूल रहे
टूट गई वो माला मोती दाने- दाने हो गए

मेरी किस्मत में खिज़ां भी और खालीपन रहा
साथ थे उनके जो मौसम वो सुहाने हो गए

राज़--उल्फत क्या बताऊँ कुछ बताने को नहीं
ख़त सभी महफूज़ हैं लेकिन अब पुराने हो गए

आये थे हम इस दुनिया में अपना एक वजूद लिए
रिश्तों में तख्सीम हुए और खाने-खाने हो गए

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बस्ती बस्ती प्यारा है
जोगी का एकतारा है


जीत के गुर सिखलाये सबको
जिसने सबकुछ हारा है

बांटे आखिर सब के गम
वो कैसा बंजारा है

उसका हर इक बोल तो जैसे
मीठे जल की धारा है

सबको ही इम्लाक करे
खुद लेकिन बेचारा है

जोगी जोगी कहते सब
वो तो आलम आरा है

विलास पंडित "मुसाफ़िर"




रविवार, अप्रैल 25, 2010

गीत

नज़र से नज़र वो मिलाने लगे हैं
मुहब्बत का जादू चलाने लगे हैं

मुलाकात जिस दिन से अपनी हुई है
कई फूल शाखों पे आने लगे हैं

तेरा दर भी दैरो हरम से नहीं कम
अकीदत से हम सर झुकाने लगे हैं

है मिलने कि हसरत मिलने के लेकिन
बहाने कई वो बनाने लगे हैं

ज़मींदोज़ होना नहीं इनकी फितरत
इमारत में पत्थर पुराने लगे हैं

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

शनिवार, अप्रैल 24, 2010

ग़ज़ल
फिर से वो ही शाम- गम, फिर वही तन्हाइयां
वक़्त मेरा क्यूँ नहीं लेता कभी अंगडाइयां

मैं तुम्हारी दीद का बस मुन्तजिर ही रह गया
और उधर दर पर तेरे बजने लगीं शेहनाइयां

एक ख़त तुझको लिखा था, वक़्त पर पहुंचा नहीं
नामाबर बेलौस था पर कर गया नादानियाँ

उस अदालत को खुदा का घर समझना ठीक है
जिस अदालत में वफ़ा की हो सकें सुनवाइयां

जब सियाह्बख्ती ने आखिर ढक दिया मेरा नसीब
तब भला किस काम की आखिर मेरे रानाइयां

इस मुताल्लिक मैं किसी से कुछ भी आखिर क्या कहूं
काश कोई आके समझे दर्द की गहराइयां

आखरी में दिल को बहलाने की खातिर कह गया
वो मुसाफ़िर प्यार के मानी तो हैं कुर्बानियाँ

विलास पंडित"मुसाफ़िर"

शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010

ग़ज़ल
कहीं सख्त पत्थर कही पर नमीं है
बड़ी बेमेहर ज़िन्दगी की ज़मीं है

किसी दिन तो हालात बदलेंगे आखिर
ये झूठा दिलासा है लेकिन यकीं है

बुलंदी को छूती इमारत बनाकर
वो मजदूर क्यूँ झोपड़ी का मकीं है

किसी को तो सबकुछ मिलता है लेकिन
किसी के मुक़द्दर में कुछ भी नहीं है

शहरों के नक़्शे तो बदले हैं लेकिन
इंसान अब तक वहीँ का वहीँ है

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

गुरुवार, अप्रैल 22, 2010

ग़ज़ल
रोज़ मेरे ग़म की आतिश में जलाता है मुझे
आजकल मेरा ही साया ख़ुद डराता है मुझे

मय से तौबा कर चुके तो ग़म से नाता जुड़ गया
जो भुलाना मैंने चाहा याद आता है मुझे

सोचता
हूँ मैं जहां में किसलिए लाया गया
जो कोई मिलता है मुझसे वो रुलाता है मुझे

जिसकी ख़ातिर दर्दो-ग़म मैंने उठाये उम्र भर
क्यूँ भला वो शख्स आख़िर भूल जाता है मुझे

घर में हो सारी सजावट,दिल भले बेजान हो
आजकल का दौर भी क्या क्या दिखाता है मुझे

शमा की मानिंद मेरी ज़िन्दगी है इन दिनों
पौ फटे ही कोई आकर क्यूँ बुझाता है मुझे

विलास पंडित "मुसाफ़िर "

सोमवार, अप्रैल 19, 2010

ग़ज़ल
दिल की हालत पूछिए साहब
ये हकीक़त पूछिए साहब

अश्क आँखों में ही जायेंगे
गम की लज्ज़त पूछिए साहब

जिसने बर्बाद कर दिया आखिर
वो ही आदत पूछिए साहब

लूटने वाले कम नहीं लेकिन
दिल की दौलत पूछिए साहब

खामखाँ आप टूट जायेंगे
राज़--उल्फत पूछिए साहब

ज़र्रा ज़र्रा वजूद रखता है
उसकी कुदरत पूछिए साहब

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

शनिवार, अप्रैल 17, 2010

ग़ज़ल

कुछ ख्वाब की कुछ हकीक़त की बातें
चलो अब करें हम मोहब्बत की बातें

सुनता है अब कौन आवाज़ दिल की
जो देखो वो करता है दौलत की बातें

शहर में मोहब्बत के दुश्मन बहोत हैं
सरे-बज़्म करते नहीं ख़त की बातें

मुश्किल थीं जिनको किताबो की राहें
उन्ही को सहल हैं सियासत की बातें

जिन्हें खुद पे अपने भरोसा नहीं है
वही लोग करते हैं किस्मत की बातें

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
ग़ज़ल

हाथ जब इक दोस्ती का मिल गया
एक रस्ता ज़िन्दगी का मिल गया

जिस नज़र से आपने देखा मुझे
कुछ मज़ा तो आशिकी का मिल गया

हम किसी के पास जाते फिर भला क्यूँ
दर खुला जब आपही का मिल गया

काश ये अफवाह होती सच खबर
दिल शहर में हर किसी का मिल गया

बागबां महबूब के ख्वाबों में था
रस भी भंवरे को कली का मिल गया

अब मसीहा नाम से मशहूर है
फल उसे दरियादिली का मिल गया

वो मुसाफ़िर खुश है आखिर इन दिनों
अब पता उसको उसी का मिल गया

विलास पंडित "मुसाफ़िर "

गुरुवार, अप्रैल 15, 2010

ग़ज़ल
मुझे इंसान कायम रख, मेरा ईमान कायम रख
खुदा मुझ पर तू अपना बस येही एहसान कायम रख

मेरी खुशियों पे हक तेरा ,मेरा हर गम भी तेरा है
मैं तेरी ही बदौलत हूँ , मेरी ये शान कायम रख

नहीं मेरा कोई मज़हब, ना कोई ज़ात है मेरी
तेरी तामीर हूँ मौला , मुझे इंसान कायम रख

बहोत से लोग दुनिया में बड़ा ही नाम करते हैं
गुज़ारिश है मेरी इतनी मेरी पहचान कायम रख

तेरा दीदार होता है, इन्ही बच्चों की सूरत में
तू इन बच्चों के चेहरों पर फकत मुस्कान कायम रख

विलास पंडित "मुसाफ़िर"