ग़ज़ल
कहाँ अब कोई चाँद तारो में है
जिसे देखिये वो कतारों में है
अदावत ने बदले कई रूप लेकिन
मोहब्बत तो अब भी इशारों में है
मरासिम हो बाहम तो कुछ तरह हों
जैसे के दरिया किनारों में है
शहर को वो मिस्मार क्या कर सकेंगे
तादाद जिनकी हज़ारों में है
सैयाद बनके वो निकला था घर से
ज़रा देखिये वो शिकारों में है
मजाके - अदब आप समझो भले ही
मगर आदमी बेकरारों में है
फकत एक झूठा बयाँ दे गया वो
कल तक था पैदल जो कारों में है
ये नंगों की दुनिया,ये भूकों की बस्ती
इनकी तो रोटी- अचारों में है
मुसाफिर की ग़ज़लों में शाइस्तगी है
शायद वो चाहत के मारों में है
विलास पंडित "मुसाफिर"
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