बुधवार, अप्रैल 14, 2010

ग़ज़ल
कहाँ अब कोई चाँद तारो में है
जिसे देखिये वो कतारों में है

अदावत ने बदले कई रूप लेकिन
मोहब्बत तो अब भी इशारों में है

मरासिम हो बाहम तो कुछ तरह हों
जैसे के दरिया किनारों में है

शहर को वो मिस्मार क्या कर सकेंगे
तादाद जिनकी हज़ारों में है

सैयाद बनके वो निकला था घर से
ज़रा देखिये वो शिकारों में है

मजाके - अदब आप समझो भले ही
मगर आदमी बेकरारों में है

फकत एक झूठा बयाँ दे गया वो
कल तक था पैदल जो कारों में है

ये नंगों की दुनिया,ये भूकों की बस्ती
इनकी तो रोटी- अचारों में है

मुसाफिर की ग़ज़लों में शाइस्तगी है
शायद वो चाहत के मारों में है

विलास पंडित "मुसाफिर"

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