ग़ज़ल
कहीं सख्त पत्थर कही पर नमीं है
बड़ी बेमेहर ज़िन्दगी की ज़मीं है
किसी दिन तो हालात बदलेंगे आखिर
ये झूठा दिलासा है लेकिन यकीं है
बुलंदी को छूती इमारत बनाकर
वो मजदूर क्यूँ झोपड़ी का मकीं है
किसी को तो सबकुछ मिलता है लेकिन
किसी के मुक़द्दर में कुछ भी नहीं है
शहरों के नक़्शे तो बदले हैं लेकिन
इंसान अब तक वहीँ का वहीँ है
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
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