ग़ज़ल
रोज़ मेरे ग़म की आतिश में जलाता है मुझे
आजकल मेरा ही साया ख़ुद डराता है मुझे
मय से तौबा कर चुके तो ग़म से नाता जुड़ गया
जो भुलाना मैंने चाहा याद आता है मुझे
सोचता हूँ मैं जहां में किसलिए लाया गया
जो कोई मिलता है मुझसे वो रुलाता है मुझे
जिसकी ख़ातिर दर्दो-ग़म मैंने उठाये उम्र भर
क्यूँ भला वो शख्स आख़िर भूल जाता है मुझे
घर में हो सारी सजावट,दिल भले बेजान हो
आजकल का दौर भी क्या क्या दिखाता है मुझे
शमा की मानिंद मेरी ज़िन्दगी है इन दिनों
पौ फटे ही कोई आकर क्यूँ बुझाता है मुझे
विलास पंडित "मुसाफ़िर "
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