सोमवार, अप्रैल 23, 2012

गंतव्य



वो भरना चाहता था 
ऊँची उड़ान ..
उसके पंखों में थी 
हौसलों की जान 
क्या करना है 
क्या नहीं 
कर चुका था इस बात का फ़ै
जाने अनजाने 
कितने ही लोगों का मसीहा बन गया..सला 
उसे लिखना थी एक नई इबारत 
कर लिया उसने इरादों पे अमल 
घर से गया बेख़ौफ़ निकल 
जी तोड़ मेहनत लायी रंग 
कई लोग हो लिए उसके संग
वो करता था ग़रीबों के हक़ में काम 
दुनिया करने लगी थी उसे सलाम 
रोज़ करना है कुछ न अच्छा 
यही उसका ध्येय था सच्चा
लोग उसे समाजसेवी कहते 
और घरवाले उसे कहते पागल 
पिताजी रुष्ट थे उसके इस काम से
पुश्तैनी काम छोड़
जुड़ गया था अवाम से
एक दिन उसे एक लिफाफा मिला 
कर दिया गया वो पिता की संपत्ति से 
बेदखल 
वो आज बहुत प्रसन्न था
अब उसे नहीं था किसी का डर
शुक्र है आज पिता जी ने जान लिया 
मेरा मंतव्य 
अब तो बस मैं हूँ और 
मेरा गंतव्य....