सोमवार, सितंबर 26, 2011


जो भी नैतिक मूल्य थे, वो सब खिलौने हो गए  
आदमी क़द में बड़े पर दिल से बौने हो गए....

उफ़ ये मानवता भिखारन हो गई फुटपाथ की 
खस्ता- हालों के लिए रस्ते बिछौने हो गए 

क्या महक नोटों की, रोटी से भी अच्छी हो गई 
आदमी के कृत्य आख़िर क्यूं घिनौने हो गए 

है पराई औरतों को अब भी पाने की हवस
घर में सारी बेटियों के कबके गौने हो गए 

यूँ तो महँगी हो गई, हर शै इसी बाज़ार की 
भाव बस इंसान के ही औने-पौने हो गए 

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

शनिवार, सितंबर 03, 2011

ग़ज़ल ...

उलझनों को और मत उलझाइये 
ज़िन्दगी को प्यार से समझाइये 

दोस्तों की बेवफ़ाई का सबब 
आप अपने दिल को मत बतलाइये 

शोखियां, बदमाशियां, सरगोशियाँ 
उम्र है ये सब तो करते जाइये 

हम दीवाने हैं या पागल हैं ज़रा 
ये पहेली आप ही सुलझाइये 

क्यूं हुए बेरंग भी, बेनूर भी 
आप फूलों को ज़रा महकाइये 

दिल तो क्या घर भी तुम्हारे नाम हैं 
आइये बेख़ौफ़ होकर आइये 

विलास पंडित 
"मुसाफ़िर'