भीगे हुए लम्हात का मंज़र नहीं मिलता
जिस घर की आरजू है वोही घर नहीं मिलता
दुनिया के सराफे में हरेक शै तो है लेकिन
अश्कों से तराशा हुआ पत्थर नहीं मिलता
ये कैसी अदावत है मोहब्बत में बता दे
अपनों की तरह क्यूँ मुझे छूकर नहीं मिलता
जिस चीज़ को चाहा मुझे हासिल तो गई
इक तेरा पता ही मुझे क्यूँकर नहीं मिलता
मुझको तेरे जहान में आना तो है मगर
बस रूह के मिज़ाज का पैकर नहीं मिलता
जिसको सुकूने ज़िन्दगी कहते रहे हैं लोग
कोई भी उस मक़ाम पे हंसकर नहीं मिलता
रहज़न तो हरेक गाम पे मिलते रहे मुझे
इतना मलाल है कोई रहबर नहीं मिलता
वो है कोई "मुसाफिर" शाइर भी है मगर
हैरत की बात है के वो खुलकर नहीं मिलता
मुसाफिर
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