ग़म के हालात का बयां दे दो
अपनी चुप को ज़रा ज़ुबां दे दो
मैं बुज़ुर्गों से कह गया इक दिन
मुझको दौलत नहीं, विरासत में
हर तजुरबे की वसीयत करके
बस अंगूठे का इक निशां दे दो
अपनी ख्वाहिश मैं बताऊँ किसको
हर तरफ हो सुकून, राहत हो
तन पे कपडा हो, पेट में खाना
मेरी आँखों को ये समां दे दो
देखकर इस जहां की हालत को
दिल से आंसूं निकल ही पड़ते हैं
चंद तब्दीलियों की है हसरत
इस ज़मीं को वो आसमां दे दो
जिसके दिल में वतन-परस्ती हो
जिसकी हसरत में अम्न हो बाक़ी
हम ग़रीबों के इस मुक़ददर में
ऐसा कोई तो हुक्मरां दे दो
मुसाफ़िर