ग़ज़ल
न जी सका मैं ख़ुशी से, न मर सका यारो
कोई भी सौदा मुकम्मल न कर सका यारो
किताब-ए-ज़िन्दगी हर दौर में रही कोरी
कोई भी रंग न पन्नों में भर सका यारो
हरेक शख्स था साहिल पे तालिब-ए-गौहर
वो मैं ही था जो कि तह में उतर सका यारो
सुना था जिसमें थे दो-चार आदमी शामिल
वो काफिला न इधर से गुज़र सका यारो
मुझे है नाज़ किसी एक शख्स के दिल में
मैं अपने शेरों के ज़रिये उतर सका यारो
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
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