शुक्रवार, अप्रैल 09, 2010

ग़ज़ल

जी सका मैं ख़ुशी से, मर सका यारो
कोई भी सौदा मुकम्मल कर सका यारो

किताब--ज़िन्दगी हर दौर में रही कोरी
कोई भी रंग पन्नों में भर सका यारो

हरेक शख्स था साहिल पे तालिब--गौहर
वो मैं ही था जो कि तह में उतर सका यारो

सुना था जिसमें थे दो-चार आदमी शामिल
वो काफिला इधर से गुज़र सका यारो

मुझे है नाज़ किसी एक शख्स के दिल में
मैं अपने शेरों के ज़रिये उतर सका यारो

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

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