ग़ज़ल
हम तेरे ग़म में इस कदर डूबे
जैसे ग़ज़लों में सुखनवर डूबे
दिल की गहराइयों को नापा तो
मेरे सीनें में समंदर डूबे
ख़ुदकुशी भी ख़ुशी में कर डाली
खुद को खुद ही से बचाकर डूबे
इश्क में तेरे मैं तो डूबा था
साथ लेकिन ये बाम-ओ-दर डूबे
एक तूफां था थम गया शायद
ज़द में उसकी थे ,वो तो घर डूबे
वस्ल की शब् का मिल गया तोहफा
सांस-दर -सांस बराबर डूबे
ज़िन्दगी हमने मुक़म्मल कर ली
तेरे पहलू में घडी भर डूबे
तुमने मुझको कहा था जब अपना
जाने कितनो के मुक़द्दर डूबे
वापसी उसकी किस तरह मुमकिन
ठहरे पानी में जो पत्थर डूबे
आज के दौर से ये ही है गिला
किसलिए सारे दीदावर डूबे
इक मुसाफ़िर ये सोचता ही रहा
क्यूँ भला साथ खैर-ओ-शर डूबे
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
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