रविवार, अप्रैल 04, 2010

ग़ज़ल
हम तेरे ग़म में इस कदर डूबे
जैसे ग़ज़लों में सुखनवर डूबे

दिल की गहराइयों को नापा तो
मेरे सीनें में समंदर डूबे

ख़ुदकुशी भी ख़ुशी में कर डाली
खुद को खुद ही से बचाकर डूबे

इश्क में तेरे मैं तो डूबा था
साथ लेकिन ये बाम-ओ-दर डूबे

एक तूफां था थम गया शायद
ज़द में उसकी थे ,वो तो घर डूबे

वस्ल की शब् का मिल गया तोहफा
सांस-दर -सांस बराबर डूबे

ज़िन्दगी हमने मुक़म्मल कर ली
तेरे पहलू में घडी भर डूबे

तुमने मुझको कहा था जब अपना
जाने कितनो के मुक़द्दर डूबे

वापसी उसकी किस तरह मुमकिन
ठहरे पानी में जो पत्थर डूबे

आज के दौर से ये ही है गिला
किसलिए सारे दीदावर डूबे

इक मुसाफ़िर ये सोचता ही रहा
क्यूँ भला साथ खैर-ओ-शर डूबे

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

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