मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

ग़ज़ल

शहर में इन दिनों आखिर बहोत माहौल बदला है
कोई घर में ही सिमटा है, कोई दुनिया में फैला है

सियासतदां है वो आखिर उसे क्या फर्क पड़ता है
भले अन्दर से काला हो मगर बाहर से उजला है

मैं ये ही सोचता था कोई भी मुझसा नहीं काबिल
जिसे देखा वही अक्सर यहाँ नहले पे दहला है


तुम्हे अफ़सोस क्यूँ आखिर,शिकायत है तुम्हे कैसी
कई गुमनाम लोगों में मेरा ही नाम पहला है

कहीं गम की घटा काली, कहीं खुशियों की रंगीनी
ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रुपहला है

इसे मैं क्या कहूँ यारो, यहाँ हर रीत बदली है
कतारें हो गई उलटी जो पीछे था वो अगला है

मंजिल का पता उसको तो हमवार हैं रस्ते
भरी दुनिया में वो शायर मुसाफिर भी अकेला है


विलास पंडित "मुसाफिर"

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