बुधवार, अप्रैल 07, 2010

गीतनुमा ग़ज़ल

प्यार का ये सिलसिला बिखरा जाये
दरमियाँ कोई हमारे जाये

सब्र उल्फत में ज़रूरी है बहोत
है अभी कमसिन ज़रा घबरा जाये

आसमां छूने की जिसको है तमन्ना
उस परिंदे को भी अब रोका जाये

ये महकता जिस्म आखिर क्या कहूँ
वो खजाना है, जिसे लूटा जाये


हो गईं गुस्ताखियाँ बाहम जो आखिर
राज़ ये दुनिया से अब खोला जाये


आरज़ू मेरी है इतनी सुन ज़रा
मेरे दर से कोई भी प्यासा जाये

ज़िन्दगी इक तेज़ रौ फिसलन सी है
हाथ से यारों कोई मौका जाये

दिल में हैं तो हैं बहोत महफूज़ आंसू
अब किसी के सामने रोया जाये

वो मुसाफ़िर है मगर शायर भी है
खामखाँ बातों में फिर उलझा जाये


विलास पंडित "मुसाफ़िर"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें