गीतनुमा ग़ज़ल
प्यार का ये सिलसिला बिखरा न जाये
दरमियाँ कोई हमारे आ न जाये ।
सब्र उल्फत में ज़रूरी है बहोत
है अभी कमसिन ज़रा घबरा न जाये
आसमां छूने की जिसको है तमन्ना
उस परिंदे को भी अब रोका न जाये
ये महकता जिस्म आखिर क्या कहूँ
वो खजाना है, जिसे लूटा न जाये
हो गईं गुस्ताखियाँ बाहम जो आखिर
राज़ ये दुनिया से अब खोला न जाये
आरज़ू मेरी है इतनी सुन ज़रा
मेरे दर से कोई भी प्यासा न जाये
ज़िन्दगी इक तेज़ रौ फिसलन सी है
हाथ से यारों कोई मौका न जाये
दिल में हैं तो हैं बहोत महफूज़ आंसू
अब किसी के सामने रोया न जाये
वो मुसाफ़िर है मगर शायर भी है
खामखाँ बातों में फिर उलझा न जाये
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
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