सोमवार, फ़रवरी 07, 2011

प्यार...! ना...अब नहीं

इस ज़माने में.........यही रीत बना ली जाये 
दिल में अब इश्क़ की बुनियाद न डाली  जाये


शहर  में  रोज़ के हंगामे  हुआ करते हैं 
क्यूँ न बस्ती किसी  जंगल में बसाली  जाये 


कह रहे हैं यही तूफां  के बदलते तेवर 
अब कोई  नाव  समंदर में न डाली जाये 


कत्ल उसने ही किया है वोही कातिल है मगर 
क्यूँ ये बात ज़माने से छुपा ली  जाये 


मोहतरम  आप मुसाफ़िर हैं  "मुसाफ़िर" मैं  भी 
क्यूँ   न मिल- जुल  के कोई राह  निकली जाये 





विलास पंडित "मुसाफ़िर"  

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