घर मेरे खुशियों को लाया कौन है,.........खुशबुएँ महकी हैं आया कौन है...
मंगलवार, दिसंबर 28, 2010
ग़ज़ल
शनिवार, नवंबर 13, 2010
Ghazal
सोमवार, अक्टूबर 25, 2010
Ghazal
यूँ तो दुनिया में क्या नहीं होता
दर्द, दिल से जुदा नहीं होता
उसको महबूब मैं कहूँ, क्यूँकर
उसका वादा - वफ़ा नहीं होता
दिल तो टूटा है इस जगह कोई
साज़ यूँ बेसदा नहीं होता
मेरा शायर मुझे बुलाता है
जब कोई सिलसिला नहीं होता
रोज़ की वो ही दास्ताँ आख़िर
क्यूँ कहीं कुछ नया नहीं होता
मान एहसान तू मेरा वरना
नज़रे बद से बचा नहीं होता
जिसको दुनिया सुकून कहती है
दिल को हासिल ज़रा नहीं होता
मौत गर वक़्त पर बुला लेती
ज़िन्दगी से गिला नहीं होता
बदगुमानी में ही गुज़र जाती
काश पर्दा उठा नहीं होता
हम "मुसाफ़िर" को कह गए फाईज़
फ़र्ज़ ऐसे अता नहीं होता
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c) Copyright By : Musafir
गुरुवार, अक्टूबर 21, 2010
ग़ज़ल
दिल की हालत न पूछिए साहब
ये हक़ीक़त न पूछिए साहब
अश्क आँखों में आ ही जायेंगे
ग़म की लज्ज़त न पूछिए साहब
जिसने बर्बाद कर दिया आख़िर
वो ही आदत न पूछिए साहब
लूटने वाले कम नहीं लेकिन
दिल की दौलत न पूछिए साहब
खामख्वाह आप टूट जाओगे
राज़-ए-उल्फत न पूछिए साहब
ज़र्रा-ज़र्रा वजूद रखता है
उसकी कुदरत न पूछिए साहब
विलास पंडित "मुसाफिर"
(c) Copyright By :Musafir
बुधवार, अक्टूबर 06, 2010
Ghazal
बेपरवाह- नशीली जुल्फें
भीगा चेहरा,गीली जुल्फें
हाल बयां करती है दिल का
छूके जिस्म नुकीली जुल्फें
अक्स पे इक बादल का पेहरा
छोड़ी जब जब ढीली जुल्फें
सावन की बूंदों में भीगी
कितनी खूब रसीली जुल्फें
हुस्न छुपाना सीख गई हैं
धूप में ये चमकीली जुल्फें
साजन से तक़रार का आलम
हों जब जब पथरीली जुल्फें
यार मुसफ़िर शाइर क्या है
चेहरा जार, मटीली जुल्फें
विलास पंडित " मुसाफिर"
(c)Copyright By : Musafir
ग़ज़ल
रविवार, सितंबर 12, 2010
Ghazal
गीत के, ग़ज़लों के मौज़ू हैं बहोत
आपकी बातों में जादू हैं बहोत
हम तो हैं मशहूर पागल प्यार में
आपके चर्चे भी हरसू हैं बहोत
काश इक दरिया मुझे सूखा मिले
आजकल आँखों में आंसू हैं बहोत
हों भले ही ख्वाब में दीदार हों
सुन रखा है आप दिल्ज़ू हैं बहोत
सरफरोशी का जुनूं रखते है हम
सर बहोत हैं, और बाज़ू हैं बहोत
जो भी है दिल में उसे खुलके कहो
आपकी बातों में पेहलू हैं बहोत
वो चमन की सैर आखिर कर गए
हाँ सभी फूलों में खुशबू हैं बहोत
फिक्र मेरी ऐ "मुसाफिर" छोड़ दे
इन दिनों जज़बात काबू हैं बहोत
विलास पंडित "मुसाफिर"
(c) copyright by :Musafir
शुक्रवार, अगस्त 27, 2010
Ghazal
रविवार, अगस्त 22, 2010
Geetnuma Ghazal
बेपरवाह- नशीली जुल्फें
भीगा चेहरा,गीली जुल्फें
हाल बयां करती है दिल का
छूके जिस्म नुकीली जुल्फें
अक्स पे इक बादल का पेहरा
छोड़ी जब जब ढीली जुल्फें
सावन की बूंदों में भीगी
कितनी खूब रसीली जुल्फें
हुस्न छुपाना सीख गई हैं
धूप में ये चमकीली जुल्फें
साजन से तक़रार का आलम
हों जब जब पथरीली जुल्फें
यार मुसफ़िर शाइर क्या है
चेहरा जार, मटीली जुल्फें
विलास पंडित " मुसाफिर"
(c)Copyright By : Musafir
बेपरवाह- नशीली जुल्फें
भीगा चेहरा,गीली जुल्फें
हाल बयां करती है दिल का
छूके जिस्म नुकीली जुल्फें
अक्स पे इक बादल का पेहरा
छोड़ी जब जब ढीली जुल्फें
सावन की बूंदों में भीगी
कितनी खूब रसीली जुल्फें
हुस्न छुपाना सीख गई हैं
धूप में ये चमकीली जुल्फें
साजन से तक़रार का आलम
हों जब जब पथरीली जुल्फें
यार मुसफ़िर शाइर क्या है
चेहरा जार, मटीली जुल्फें
विलास पंडित " मुसाफिर"
(c)Copyright By : Musafir
गुरुवार, अगस्त 12, 2010
Ghazal
बुधवार, जुलाई 07, 2010
ghazal
ग़ज़ल
जिसका अपना कोई ज़मीर नहीं
मेरी नज़रों मे वो अमीर नहीं.
जिसकी जानिब हों ग़म ज़माने के
वो तो मुफलिस नहीं, फ़कीर नहीं
तल्ख़ बातें ज़ुबां से मत कीजे
बख्श दें रूह ये वो तीर नहीं
कोई खुशियों में, कोई है ग़म में
कौन ऐसा है जो असीर* नहीं
इक "मुसाफ़िर" हूँ अपनी मंज़िल का
मै तो ग़ालिब नहीं मैं मीर नहीं
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c) copyright by :Musafir
शनिवार, जून 19, 2010
आदमी थे हम भी पत्थर हो गए
प्यार करके कुछ तो हासिल हो गया
आदमी थे हम भी शायर हो गए
हम मुक़म्मल क्या बताएं आपको
आपके सीने से लग कर हो गए
उनसे मिलने में हिचक होती है अब
वो हमारे कद से ऊपर हो गए
लोग इतने तेज़ जाते हैं कहाँ ?
हम तो आख़िर चूर थककर हो गए
मैं भला ग़ैरों को आख़िर क्या कहूँ
आजकल अपनों से बेहतर हो गए
नाम ही ने कर दिया रुसवा हमें
हम "मुसाफ़िर" थे सो बेघर हो गए
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c) copyright by : Musafir
शनिवार, जून 12, 2010
अपनी तो क़िस्मत रूठी है, झूटी है तकदीर मियां
वक़्त ने उस पर पैरों में भी बाँधी है ज़ंजीर मियां
तुम कहते हो जाकर देखो,शायद कुछ पा जाओगे
छोड़ो, रहने भी दो जाओ, बातों की तनवीर* मियां
उतने के उतने ही पाए ग़म के सागर में मोती
पैर फ़क़ीरों के भी चूमे,देख लिए सब पीर मियां
लोगों के घर की रौनक हैं दिलबर,दौलत,रंगों-फूल
अपने तो घर की रौनक है अपनी ही तस्वीर मियां
रोज़ ही ख्वाबों में आता था, उजड़ा सा वीरान शजर
इक दिन तन्हाई में समझे, ख्वाबों की ताबीर मियां
लाख "मुसाफ़िर"ग़ज़लें कहलो लेकिन इतना ध्यान रहे
एक ही थे "ग़ालिब' दुनिया में एक ही थे वो "मीर" मियां
शब्दार्थ = तनवीर =रौशनी
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c) copyright by :Musafir
बुधवार, जून 02, 2010
एक भी कतरा न छोड़ा कीजिये
दिल मेरा जब भी निचोड़ा कीजिये
आप ही के नाम से पहचान हो
नाम मेरा साथ जोड़ा कीजिये
सीधे सीधे चलके क्या हासिल हुआ
ज़िंदगी मुड़ती है, मोड़ा कीजिये
सिर्फ दुनिया पर ही सारी तोहमतें
खुद को भी आख़िर झंझोड़ा कीजिये
लेने वाले तो सभी कुछ ले गए
आप भी एहसान थोड़ा कीजिये
आपको ये हक़ मोहब्बत में दिया
दिल है मेरा खूब तोड़ा कीजिये
मैं "मसाफिर" हूँ मुझे चलना ही है
बा-अदब छाले न फोड़ा कीजिये
विलास पंडित "मुसाफिर"
गुरुवार, मई 27, 2010
Ghazal
जफा भी खूबसूरत है, वफ़ा भी खूबसूरत है
मुक़दमा बेखुदी का है सज़ा भी खूबसूरत है
नहीं है तेरा चेहरा कम किसी शादाब गुंचे से
तेरी मखमूर आँखों में नशा भी खूबसूरत है
चलो आओ बिखेरें खुशबूएं अपनी वफ़ाओं की
बहारें हैं जवानी पर फिज़ा भी खूबसूरत है
तेरे हर काम को अंजाम देने का नतीजा सुन
किया भी खूबसूरत है, हुआ भी खूबसूरत है
तेरे माथे की बिंदिया तो लगे है चाँदनी जैसी
रची है जो हथेली पर हिना भी खूबसूरत है
विलास पंडित "मुसाफिर"
बुधवार, मई 26, 2010
सोमवार, मई 24, 2010
Ghazal
इन दिनों मेरे घर नहीं आती
कोई अच्छी खबर नहीं आती
शहर के सब हसीन चेहरों पर
ज़िन्दगी क्यूँ नज़र नहीं आती
वो सुनाता है दास्तां अपनी
आँख जबतक कि भर नहीं आती
सौंधी सौंधी है गाँव की मिट्टी
उसकी खुशबू शहर नहीं आती
प्यार से सिर्फ देखती है मुझे
मैं बुलाता हूँ पर नहीं आती
कब के मर जाते याद जो तेरी
हौले हौले से गर नहीं आती
वो "मुसाफ़िर" जहां पे रहता है
ज़िन्दगी भी उधर नहीं आती
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
रविवार, मई 16, 2010
आप मिलने जहां नहीं आते
कोई मौसम वहां नहीं आते
इतना मसरूफ है शहर तेरा
लोग भी दरमियां नहीं आते
ज़िन्दगी है तो ग़म भी आयेंगे
हाय पतझड़ कहां नहीं आते
बज्मे रौशन कहीं भी हो कोई
जब हो हम बदगुमां नहीं आते
मेरे मुन्सिफ मुझे न कर मुजरिम
जब तलक कुछ बयां नहीं आते
इक सहारा नुमा सा हो मरहम
ज़ख्म के जब निशां नहीं आते
जो हैं मंज़िल की जुस्तजू वाले
वो "मुसाफ़िर" यहां नहीं आते
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
मंगलवार, मई 11, 2010
हम अजल* को हयात मानेंगे
तुम जो कहदो वो बात मानेंगे
सिर्फ इक आपकी ख़ुशी के लिए
जीत को अपनी मात मानेंगे
सजके निकलेगा इक दीवाने का
जब जनाज़ा, बरात मानेंगे
नामुरादी के सिलसिले आख़िर
अब तो खुद को अलात* मानेंगे
ज़ब्ते गिर्या* का फ़न सिखा डाला
ज़िंदगी की बिसात * मानेंगे
आपकी एक हाँ को ऐ हमदम
सात जन्मों का साथ मानेंगे
उस "मुसाफ़िर" के ज़ख्म देखे हैं
दोस्तों को शनात * मानेंगे
शब्दों के अर्थ :- अजल = मौत, अलात =जिस पर रखके लोहा कूटा जाता है, ज़ब्ते गिर्या का फ़न = आंसू पीने की कला , बिसात= हिम्मत, शनात = शत्रु गण
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
रविवार, मई 09, 2010
हर तरफ खुशियाँ बसी हों, कोई तनहा दिल न हो
प्यार से महरूम कोई, प्यार की महफ़िल न हो
यूँ तो इक ज़र्रा भी अपनी ज़िन्दगी काटे मगर
ज़िंदगी वो ज़िंदगी क्या जिसकी इक मंजिल न हो
उस समंदर की भटकती टूटती कश्ती हूँ मैं
जिस समंदर का कोई मीलों तलक साहिल न हो
ऐसी इक दुनिया का मैंने ख्वाब देखा है यहाँ
चाहतो का क़त्ल ना हो, और कोई कातिल न हो
उस "मुसाफ़िर" का फकत छोटा सा ही ये ख्वाब है
कोना -कोना बा-अदब हो, कोई भी ज़ाहिल न हो
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
गुरुवार, मई 06, 2010
हंसाया गया हूँ , रुलाया गया हूँ
खिलौना मुनासिब बनाया गया हूँ
इंसान हूँ तो तारुफ़ है मेरा
अफसाना हूँ मैं सुनाया गया हूँ
गरजमंद था मुझसे हर शख्स ज्यादा
तेरे दर पे जब में खुदाया गया हूँ।
ऐ लहरों मुहब्बत के बारे में सोचो
वही नाम हूँ जो मिटाया गया हूँ
रिश्तों के कांटे बिछे थे जहां पर
मैं उस राह पर ही सुलाया गया हूँ
मैं जिंदा था जब किसी ने न पूछा
बाद मरने के आखिर सजाया गया हूँ
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
सोमवार, मई 03, 2010
चैन से आखिर सोया जाए
अब ख़्वाबों में खोया जाए
जीवन में तो ग़म ही ग़म हैं
आखिर कितना रोया जाए
नफरत के इस शहर में अब तो
बीज वफ़ा का बोया जाए
दुनिया का हर बोझ है हल्का
खुद का बोझ न ढोया जाये
आंसू तो आंसू हैं , मय से
दामन आज भिगोया जाये
कांच की माला है ये दुनिया
मोती एक पिरोया जाये
एक 'मुसाफ़िर 'कहता है कि
अश्को से ग़म धोया जाये
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
शनिवार, मई 01, 2010
ये खुशियाँ, ये नग्में सारे, तेरे नाम
शादाँ मौसम चांद सितारे, तेरे नाम
हुक्म तुम्हारा हो जाये तो सारा कुछ
कर जायेंगे हम बंजारे, तेरे नाम
बीच भंवर में जीना हमको आता है
दरिया के फैयाज़ किनारे,तेरे नाम
मेरे बस में होता तो मैं कर देता
दुनिया के पुरकैफ नज़ारे, तेरे नाम
मैं कर बैठा तू न समझा हैरत है
चाहत के कुछ खास इशारे,तेरे नाम
वस्ल के कुछ लम्हात जिन्हें हम कहते हैं
नाज़ुक-नाज़ुक, प्यारे-प्यारे, तेरे नाम
जब तुम हो तो और ज़रुरत क्या मुझको
जो कुछ भी है नाम हमारे ,तेरे नाम
विलास पंडित "मुसाफ़िर"