गुरुवार, अगस्त 12, 2010

Ghazal


इस दौर के आख़िर क्या कहने, इस दौर में चाहत कुछ भी नहीं
दौलत की नुमाइश है हरसू, इंसान की कीमत कुछ भी नहीं

ये देख लिया, ये जान लिया, अब सच क्या है पहचान लिया
इस दौर में रिश्तो के मानी, एहसास-ओ- मुहब्बत कुछ भी नहीं

वो तुम ही थे, जो कहते थे, ये साथ कभी ना छूटेगा
तुम गैर की डोली में बैठे, ये तल्ख़ हकीकत कुछ भी नहीं

कुछ तेरे ख़त, कुछ तस्वीरें,कुछ ग़ज़लें और कुछ तेरा ग़म
यादें ही सम्हाले रक्खी हैं, और घर में सलामत कुछ भी नहीं

सिक्कों की खनक में जादू है, दौलत में अजब ही ख़ुश्बू है
इस प्यार की कीमत कुछ भी नहीं,जज़्बात की कीमत कुछ भी नहीं

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c) copyright : Musafir

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