रविवार, मई 09, 2010

ग़ज़ल
हर तरफ खुशियाँ बसी हों, कोई तनहा दिल न हो
प्यार से महरूम कोई, प्यार की महफ़िल न हो

यूँ तो इक ज़र्रा भी अपनी ज़िन्दगी काटे मगर
ज़िंदगी वो ज़िंदगी क्या जिसकी इक मंजिल न हो

उस समंदर की भटकती टूटती कश्ती हूँ मैं
जिस समंदर का कोई मीलों तलक साहिल न हो

ऐसी इक दुनिया का मैंने ख्वाब देखा है यहाँ
चाहतो का क़त्ल ना हो, और कोई कातिल न हो

उस "मुसाफ़िर" का फकत छोटा सा ही ये ख्वाब है
कोना -कोना बा-अदब हो, कोई भी ज़ाहिल न हो

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

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