सोमवार, मई 03, 2010

ग़ज़ल
चैन से आखिर सोया जाए
अब ख़्वाबों में खोया जाए

जीवन में तो ग़म ही ग़म हैं
आखिर कितना रोया जाए

नफरत के इस शहर में अब तो
बीज वफ़ा का बोया जाए

दुनिया का हर बोझ है हल्का
खुद का बोझ ढोया जाये

आंसू तो आंसू हैं , मय से
दामन आज भिगोया जाये

कांच की माला है ये दुनिया
मोती एक पिरोया जाये

एक 'मुसाफ़िर 'कहता है कि
अश्को से ग़म धोया जाये

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

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