सोमवार, अक्तूबर 25, 2010

Ghazal

यूँ तो दुनिया में क्या नहीं होता

दर्द, दिल से जुदा नहीं होता

उसको महबूब मैं कहूँ, क्यूँकर

उसका वादा - वफ़ा नहीं होता

दिल तो टूटा है इस जगह कोई

साज़ यूँ बेसदा नहीं होता

मेरा शायर मुझे बुलाता है

जब कोई सिलसिला नहीं होता

रोज़ की वो ही दास्ताँ आख़िर

क्यूँ कहीं कुछ नया नहीं होता

मान एहसान तू मेरा वरना

नज़रे बद से बचा नहीं होता

जिसको दुनिया सुकून कहती है

दिल को हासिल ज़रा नहीं होता

मौत गर वक़्त पर बुला लेती

ज़िन्दगी से गिला नहीं होता

बदगुमानी में ही गुज़र जाती

काश पर्दा उठा नहीं होता

हम "मुसाफ़िर" को कह गए फाईज़

फ़र्ज़ ऐसे अता नहीं होता

विलास पंडित "मुसाफ़िर"

(c) Copyright By : Musafir

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