मंगलवार, मार्च 08, 2011

एक बार मुझे मिल जाती तुम.......दूसरी किश्त

एक बार मुझे मिल जाती तुम.........
मेरी ज़िन्दगी का हर ख्वाब मुक़म्मल हो जाता ...

फिर न कोई गीत अधूरा होता 
न होता अल्फ़ाज़ का सरमाया ख़त्म 
रोज़ खिलते नए-नए गुंचे
हर वक़्त फ़िज़ाओं में गूंजते नग़में.......
एक छोटा सा आशियाँ होता.......
जिसकी हर खिड़की 
बहारों-पहाड़ों और आबशारों के मंज़र दिखाती..........
हमको हर लम्हा लुभाती रहती....
तुम मेरा साथ देती अगर ........?
तो यकीनन हमारा मिलन
मान लेता आज न होता ....लेकिन 
ये मिलन कल हो जाता ............

एक बार मुझे मिल जाती तुम.......
ज़िन्दगी का हर ख्वाब मुक़म्मल हो जाता....

विलास पंडित "मुसाफिर"

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर एहसास से पिरोयी नज़्म।

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  2. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (10-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  3. एक बार मुझे मिल जाती तुम.......
    ज़िन्दगी का हर ख्वाब मुक़म्मल हो जाता

    यही तो रोना है कि जिन्दगी का हर ख्वाब मुकम्मल नही हो पाता। बेहतरीन नज्म।

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