फूल भी अब खार लगते है मुझे.
शक्ल तो इंसान जैसी है मगर 
क्यूँ सभी अखब़ार लगते है मुझे 
जिस्म तो अबभी क़यामत हैं मगर 
इन दिनों बाज़ार लगते हैं मुझे 
पाके दुनिया में सभी कुछ आदमी 
हाँ ! ज़र्द रू  बेज़ार लगते हैं मुझे
जब ग़रीबों के मकान रोशन दिखें 
दिन वही त्यौहार लगते हैं मुझे 
वो "मुसफ़िर" शेर कहता है मगर 
दिल के टूटे तार लगते हैं मुझे
विलास पंडित "मुसफ़िर"
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उम्दा ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंजब ग़रीबों के मकान रोशन दिखें
जवाब देंहटाएंदिन वही त्यौहार लगते हैं मुझे
बहुत ख़ूब !
ख़ूबसूरत ग़ज़ल है विलास जी
मनोज जी, इस्मत जी, आप लोगों की हौसला अफज़ाई मेरा असली इनआम है
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