बुधवार, मार्च 31, 2010

ग़ज़ल 1
वो यकीनन दर्द अपने पी गया
जो परिंदा प्यासा रहके जी गया

झांकता था जब बदन मिलती थी भीख
क्यूँ मेरा दामन कोई कर सी गया

उसमें गहराई समंदर की कहाँ
जो मुझे दरिया समझकर पी गया

चहचहाकर सारे पंछी उड़ गए
वार जब सैयाद का खाली गया

लौटकर बस्ती में फिर आया नहीं
बनके लीडर जब से वो दिल्ली गया

टूटकर बिखरी मेरी सारी हदें
सर से आखिर जब मेरे पानी गया

कोई रहबर है, न है मंजिल कोई
अब मुसाफ़िर लौटकर आ ही गया.

ग़ज़ल 2
भूल गया है,खुशियों की मुस्कान शहर
पत्थर जैसे चेहरों की पहचान शहर

बाशिंदे भी अब तक न पहचान सके
जिंदा भी है या कि है बेजान शहर

सोचले भाई जाने से पहले ये बात
लूट चुका है लाखों के अरमान शहर

जिंदा है गावों में अब तक सच्चाई
दो और दो का पांच करे मीज़ान शहर

बदलेंगी दुनिया की सोचें बदलेंगी
बदलेगा गर अपने कुछ इमकान शहर

उसकी नज़रों में जो मुसाफ़िर शाइर है
बस ख्वाबों की दुनिया का उन्वान शहर

Musafir
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