ग़ज़ल
आप मिलने जहां नहीं आते
कोई मौसम वहां नहीं आते
इतना मसरूफ है शहर तेरा
लोग भी दरमियां नहीं आते
ज़िन्दगी है तो ग़म भी आयेंगे
हाय पतझड़ कहां नहीं आते
बज्मे रौशन कहीं भी हो कोई
जब हो हम बदगुमां नहीं आते
मेरे मुन्सिफ मुझे न कर मुजरिम
जब तलक कुछ बयां नहीं आते
इक सहारा नुमा सा हो मरहम
ज़ख्म के जब निशां नहीं आते
जो हैं मंज़िल की जुस्तजू वाले
वो "मुसाफ़िर" यहां नहीं आते
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
पढ़ते ही मुह से वाह ! निकाल देने वाली ग़ज़ल है ये ......मान गए भाई पहली बार पढ़ा आपको .....क्या कहूं तारीफ़ के लिए / यह ग़ज़ल खुद अपनी तारीफ़ है ...बस यही कहूँगा ...आपको mera सलाम
जवाब देंहटाएंमेरे मुन्सिफ मुझे न कर मुजरिम
जवाब देंहटाएंजब तलक कुछ बयां नहीं आते
इक सहारा नुमा सा हो मरहम
ज़ख्म के जब निशां नहीं आते
जो हैं मंज़िल की जुस्तजू वाले
वो "मुसाफ़िर" यहां नहीं आते
वाह जी वाह
दिल खुश हो गया
मै भी आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया
पता नहीं कैसे इतने दिन से आपकी पोस्ट छूट रही थी
जबकि आपके पोस्ट की हेडिंग में "गजल" लिखा हुआ है
ब्लॉग फालो कर रहा हूँ पोस्ट मिस नहीं होगी
एक बार फिर से शुक्रिया
ज़िन्दगी है तो ग़म भी आयेंगे
जवाब देंहटाएंहाय पतझड़ कहां नहीं आते
ज़िंदगी की लम्बी दास्ताँ को
कुछ ही शब्दों में बड़ी खूबसूरती से
बयान कर दिया है आपने इस शेर में .....
ग़ज़ल के बाक़ी शेर भी असरदार हैं .