शुक्रवार, जनवरी 21, 2011

आवारगी में यूँ तो क्या क्या नहीं किया 
यारों मगर किसी से धोका नहीं किया.

थे चारसू हमारे गुनाहों के सिलसिले 
दामन बचा के रखलिया मैला नहीं किया 

कश्ती की जुस्तजू में बसर ज़िन्दगी तो की 
लेकिन किसी ने पार वो दरिया नहीं किया 

वादा तो आप कर गए निभाया नहीं मगर
मेरी नज़र में आपने अच्छा नहीं किया 

शायद मेरा नसीब ही पतझड़ था, धूप  थी 
आख़िर किसी दरख़्त ने साया नहीं किया 

ये क्या तुम्हारी आँख में आंसू भी आ गए 
हमने शुरू तो दर्द का क़िस्सा नहीं किया 

बाज़ार तो सजा था, गुनाहों का हर तरफ 
हमने मगर ज़मीर का सौदा नहीं किया  

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(C) copyright by : Musafir 

शनिवार, जनवरी 15, 2011

एक दिन राह में इक हसीं मिल गई
जैसे ख्वाबों को मेरे ज़मीं  मिल गई..
उसकी हर इक अदा में थी जादूगरी 
वो तो थी.... खूबसूरत सी कोई परी
सादगी उसकी बातों की पहचान थी 
वो ज़माने की बातों से नादान थी....
आँखों-आँखों में उससे मुहब्बत हुई 
ऐ  खुदा देख तो क्या कयामत  हुई 
सारा माहौल फिर तो सुखनवर हुआ
राज़ बाहम जो था वो उजागर हुआ 
फूल खिलने लगे, हम भी मिलने लगे
और मुहब्बत  के दुश्मन भी जलने लगे 
हमने छोड़ी नहीं राहे उल्फ़त मगर
की, मुहब्बत में, चाहत में, हमने बसर 
ज़िन्दगी कट गई दरमियाँ प्यार में 
ज़िन्दगी कट गई दरमियाँ प्यार में 

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
[c] Copyright by : Musafir  

मंगलवार, जनवरी 11, 2011

ग़ज़ल

चमन का फूल, सितारों की दिलकशी तुम हो
मेरी हयात की ताबिंदा ज़िन्दगी तुम हो 

मैं एक रिन्दे-खराबात हूँ ज़माने में 
मेरे सुरूर की दुनिया हो मयकशी तुम हो 

तुम्हारे दम से है कैफ़-ओ-सुरूर का आलम 
ग़ज़ल का हुस्न हो, गीतों की मौसिकी तुम हो 

तुम्हारे हुस्न की दुनिया में जब हुई हलचल 
यकीं हुआ कि कोई अर्श की परी तुम हो 

अभी तो तुमको "मुसाफ़िर" ही बनके रहना है 
ये बात याद भी रक्खो कि अजनबी तुम हो

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c) Copyright By: Musafir
This ghazal was created by me in 1990. Sung by Renowned Singer "Anwar"

गुरुवार, जनवरी 06, 2011

ग़ज़ल

वो यकीनन ही किसी का हो गया
शौक जिसकी शाइरी का हो गया

अब कोई बदलाव आना चाहिए
आस्मां आख़िर ज़मीं का हो गया

ज़िन्दगी तुझसे शिकायत हो गई
जब तमाशा बेबसी का हो गया

फैसला उसकी अदालत में मेरे
हर नफस हरइक घड़ी का हो गया

प्यार के दुश्मन भी मुंह की खा गए
ख़ुद समंदर जब नदी का हो गया

इक झलक के लोग प्यासे थे मगर
वो तो दीवाना गली का हो गया

होश अपना फिर कहाँ कायम रहा
जब तसव्वुर इक परी का हो गया

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(C) copyright by Musafir




सोमवार, जनवरी 03, 2011

ग़ज़ल

जिस्म है खामोश, दिल सोने को है
अब दुआओं में असर होने को है

घर के सारे लोग हैं, अहले-ज़मीं
फ़िक्र मेरी घर के इक कोने को है

किसलिए इतना भरम,आखिर सनम
ज़िन्दगी में क्या भला खोने को है

हो रही है, इक सुबह उम्मीद की
आदमी बस आदमी होने को है

जिसमे वादे थे वफ़ा, जज़्बात थे
ख़त लहू से आज वो धोने को है

जब दिली जज़्बात ही बाहम नहीं
बोझ फिर रिश्तों का क्यूँ ढोने को है

शुक्रिया या-रब, तेरा फिर शुक्रिया
इक "मुसाफ़िर" पास में रोने को है

विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(C) Copyright by :Musafir

गीत

प्यार है, और वस्ल का आलम भी है
इन दिनों बरसात का मौसम भी है

वक़्त ऐसा फिर कहाँ मिल पायेगा
रौशनी इस शाम की मद्धम भी है

आबशारों की सदा को क्या कहूँ
प्यार है तो प्यार की सरगम भी है

दोस्त हम पहले पहल थे आजकल
सिलसिला इक प्यार का बाहम भी है

मेरे नगमें और मेरी आवाज़ क्यूँ
साथ पायल की तेरे छम-छम भी है

एक दूजे के चलो हो जायें हम
प्यार का इक नाम तो संगम भी है

क्या कहा उसको बताओ ना मुझे
वो मुसाफ़िर खुश भी है पुर ग़म भी है


विलास पंडित "मुसाफ़िर"
(c)
copyright by : Musafir