शनिवार, अप्रैल 17, 2010

ग़ज़ल

हाथ जब इक दोस्ती का मिल गया
एक रस्ता ज़िन्दगी का मिल गया

जिस नज़र से आपने देखा मुझे
कुछ मज़ा तो आशिकी का मिल गया

हम किसी के पास जाते फिर भला क्यूँ
दर खुला जब आपही का मिल गया

काश ये अफवाह होती सच खबर
दिल शहर में हर किसी का मिल गया

बागबां महबूब के ख्वाबों में था
रस भी भंवरे को कली का मिल गया

अब मसीहा नाम से मशहूर है
फल उसे दरियादिली का मिल गया

वो मुसाफ़िर खुश है आखिर इन दिनों
अब पता उसको उसी का मिल गया

विलास पंडित "मुसाफ़िर "

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