जो भी नैतिक मूल्य थे, वो सब खिलौने हो गए
आदमी क़द में बड़े पर दिल से बौने हो गए....
उफ़ ये मानवता भिखारन हो गई फुटपाथ की
खस्ता- हालों के लिए रस्ते बिछौने हो गए
क्या महक नोटों की, रोटी से भी अच्छी हो गई
आदमी के कृत्य आख़िर क्यूं घिनौने हो गए
है पराई औरतों को अब भी पाने की हवस
घर में सारी बेटियों के कबके गौने हो गए
यूँ तो महँगी हो गई, हर शै इसी बाज़ार की
भाव बस इंसान के ही औने-पौने हो गए
विलास पंडित "मुसाफ़िर"