गुरुवार, मई 05, 2011

हल्की-फुल्की ग़ज़ल.......




जिसने साथ निभाया है
वो मेरा हमसाया है ....

ग़ैर नहीं भाई है मेरा 
हिस्सा लेने आया है 

टूटके फिरसे खिलने का गुर 
फूलों  ने सिखलाया है 

जाने किसने साथ निभाया 
जब जब दिल घबराया है 

मेरी जानिब गर कुछ है तो 
यादों का सरमाया है

इन्सां इन्सां -पत्थर पत्थर 
शहरों शहरों पाया है

अपनी सोच को ऊँचा रखना 
ख़्वाबों ने बतलाया  है

मुसाफ़िर.......

रविवार, मई 01, 2011

ग़ज़ल !!!!!

शहर में इनदिनों आख़िर बहोत माहौल बदला है
कोई घर में ही सिमटा है, कोई दुनिया में फैला है

सियासत दां है वो आख़िर उसे क्या फ़र्क पड़ता है
भले अन्दर से हो काला, मगर बाहर से उजला है

मैं ये ही सोचता था, कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
मगर देखा जिसे वो ही यहां नहले पे देहला है

कहीं ग़म की घटा काली, कहीं खुशियों की रंगीनी
ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रुपहला है

न मंज़िल का पता उसको, न तो हमवार हैं रस्ते
भारी दुनिया में वो शाइर "मुसाफ़िर" भी अकेला है

मुसाफ़िर